फ़िल्म देखना बड़ा मुश्किल काम है. हिंदी, हिंदुस्तानी और भारतीय फ़िल्में नहीं, वो तो अभी भी, और जाने कितने ज़मानों तक ‘अच्छे‘ के मुहावरों, बुनावटों से बाहर रहेगी; मैं सिनेमा के मार्मिक, सपनीले, अंतरंग छांहदार सुनहले धूपों की ओर इशारा कर रहा हूं, अच्छा, भव्य और वैभवकारी सिनेमा.. जिसका ‘अच्छा’ और ‘उदास’ देखते हुए आप नहाना, चाय पीना भूल जायें, उसकी डेंसिटी कुछ इस तरह आपके मन में घर करके बैठे, उसके सरस सरल एक्सेसिबल संवादों की मिठास, उसके किरदारों के एक्सप्रेशन, उसका स्पेस और उसमें कैमरे की लचक, महीनी का घूमना कि आपकी फिर उससे गुज़रने के बाद किसी से बात करने की तबीयत न हो, चहककर फेसबुक के स्टेटस में उसे याद करना आपको बेजा, भौंडी और घिनौनी हरकत लगे, तकिये में औंधे गिरे, मुंह गड़ाये चुप्प और सन्न आप सिर्फ़ यह सोचते फिरें कि कैसे जी लेते हैं लोग ऐसा जीवन कि उससे फिर ऐसा तरल सिनेमा निकलकर बाहर आता है, ज़ाक प्रिवेर जैसी लोग लिखाई कर लेते हैं, सिनेमा के उस शुरुआती दौर तक में ज़्यां गाबें की गुफ़्तगू कर लेते हैं, मैं विद्यासागर जी की संगत में बैठने की फोटु उतरवा लेता हूं, उनके व्यक्तित्व की महीनी का कुछ भी दिमाग में नहीं बना, बचा रहता, इतनी ज़रा-सी सौजन्यता तक नहीं कि फिर कभी उन्हें फ़ोन पर नमस्ते कहने की सूरत तक में ही उन्हें याद किया हो!
जीवन का अच्छा हमें इसी तरह सन्न करता है, अपने गुज़र चुकने के बाद एक तीखी कचोट और गहरे अवसाद के नशे में लपेट रहने की तरह घेरे रहता है, कि ओह, क्या था, और कि दोस्त, तब ठीक-ठीक समझ क्यों नहीं सके? ठीक-ठीक कभी समझ सकेंगे, कभी भी? इस एक छोटे, जीवन में? फ़ेल्लीनी को, क्लाउंस, ऑकेस्ट्रा रिहर्सल, और नाव चलती रही के संगीत, उसके भव्य सिनेमाई उन्वानों को? जहां सतह पर कुछ, किसी कहानी के नहीं ‘दीखने’ में भी कितनी सारी कहानियां खुलती होती हैं? एक ज़रा-सी ग़लतफ़हमी की टेक पर हिचकॉक कैसा भव्य ग़लत आदमी की दुनिया खड़ी कर लेते हैं, आठ और आधा की सांद्रा मिलो और कबीरियन रातों का फ्रांसुआ पेरिये ‘ला विसिता’ की उदास, मोहिनी कस्बाई मुर्खताएं? मैक्स ऑफुल्स सन् पचास में ‘चकरी’ बनाते हैं, जिसके साठ सालों बाद हिंदुस्तानी सिनेमा जिस चकरी के ‘च’ तक भी नहीं पहुंचता, साधन तो नहीं, मन के अज़ीज़ अरमानों में कहां कसर रह जाती है? आर्थर मिलर एक नहीं, एक के बाद एक अपने किरदारों से कैसी दिलअज़ीज़ लाइनें बुलवाते रहते हैं, फ़िल्म तक़लीफ़ और सिनेमाई सुख के कैसे नशीले कॉकटेल में आपकी पलकों पर गिरी रहती है, कैसे कोई जॉन ह्युस्टन बुढ़ाये गेबल के साथ कोई ‘मिसफिट्स’ बना लेता है? लोग याद करते हैं, ईनामों से नवाजी जाती है जेम्स कैमरोन की ‘अवतार’, कहां से उड़ाई गई है उससे बारह वर्षों पहले बनाई मियाज़ाकी की ‘मोनोनोके’ की कविता और उसका दर्द हमारे संभाले नहीं संभलता, हमें याद रहता है?
अच्छी फ़िल्म देखना बड़ा मुश्किल काम है.
आप प्लीज़ जाकर जौहर की अगिनपथ देख आईए.
12 comments:
Very warm, thoughtful. Made my day. Thanks. By the way, the imdb link for Princess Mononoke leads to the Avatar page.
ok, my fault, now 'avatar' stays in its place.
"अपने गुज़र चुकने के बाद एक तीखी कचोट और गहरे अवसाद के नशे में लपेट रहने की तरह घेरे रहता है, कि ओह, क्या था, और कि दोस्त, तब ठीक-ठीक समझ क्यों नहीं सके? ठीक-ठीक कभी समझ सकेंगे, कभी भी? इस एक छोटे, जीवन में?"
दिल जिगर जान ले गये सर जी!!फ़ीलिंग को जुबां दे दी..अच्छी फ़िल्म की तमीज तो अभी तक नही सीख पाये अपन..मगर जो देखा उसी पे कलेजा काट के रख दिया..कि ऐसी मनहरण फ़िल्मे आखों के आगे से सोने के हिरन सी कौंध के लुप्त हो जाती हैं कि फिर मन करता है कि किसी तालाब की तलहटी मे हाथ बाँध के जा छुपें या किसी पहाड़ की चोटी से आंख मूंद कर कूद पड़ें कि अब जिंदगी मे और कुछ बाकी नही रहा..कथनी गोर्की की कि इस किंगडम आफ़ शैडो मे कौन कामरूपी जादू छुपा है कि सिनेमा पराडाइसो से बाहर निकल कर फिर अप्ने घर का पता याद नही रहता..!! कैसा तो सम्मोहन है और फिर चबन्नी भर की जिन्नगी..ट्वेल्व एंग्री मेन देख लो या राशोमोन देख लो फिर आइने मे खुद की आंखों मे देखने से डर लगता है..कम एंड सी, मिसिंग या उड़ने वाले कछुए देख कर फिर दुनिया की आखों मे झांकने से डर लगता है..तो पाथेर पंचाली और पड़ोसी टोटोरो को देख के सांस वापस लौटती है कि दुनिया मे कविता बाकी रहेगी सब खतम होने के बाद भी..तो डेकालाग के एक भी लाग का सपने मे भी जिकर हो जाये तो मन के रोयें भीग जाते हैं..सच मे कैसे लोग जी लेते हैं इतना जीवन..और हम तो रेगिस्तान के तूफ़ानो के बीच धोरों पर पावों के निसाँन खोजते रह जाते हैं..एक ही जापान मे कितने जापान हो्ते हैं..और कितने जापानों मे जिंदगी का तम्बू ताना जाये एक संग??..गूंगे का चिल्ली-सॉस है यह फ़ीलिंग भी..बहुत तकलीफ़ है फ़िल्मे देखने मे...यह भी देखने के कैंसर का सिम्प्टम है कि हम फिर दौड़ कर जौहर की अग्नि्पथ भी देख आते हैं..कि अच्छी फ़िल्मों मे अपनी देखने की तकलीफ़ बरामद रहे..
@ऑटम सोनाटा में इंग्रिद बरमैन वाला क्वोट भुला गये हो? "I could always live in my art, but never in my life."
एनीवेज़, बाबू, मन का अगिनपथ जलाये रक्खो, दुनिया का अंधारा में वहीये का साथ है.
शानदार!
प्रमोद जी,आप के ब्लॉग की नई एन्ट्रीज् की हमेशा ताक में रहता हूँ.फिल्मों का लुत्फ तो अपनी जगह,लेकिन मुंबई में रहते हुए इतनी खूबसूरत हिंदी कहां पढने मिलती है? आप ने जिक्र की हुई सभी फिल्में मेरी पसंदीदा है,उन्हे देख चुके बहुत कम लोग मिलते हैं,इसलिय़े आप का ब्लॉग और भी करीब लगता है.
आप का राऊल रुईज (Raoul Ruiz) के बारे में क्या खयाल है?उन्होंने फिल्में तो खैर सौ से भी ज्यादा बनाई है,लेकिन ईरानी लेखक सादिक हिदायत के उपन्यास पर बनी 'द ब्लाईंड आऊल''आप को पसंद आएगी.वह सिनेमा के बोर्खेस कहे जा सकते है.
@बाबू निखिलेश प्यारे,
नाम सुना था मगर, सच्ची, राऊल की फ़िल्में, सवा सौ में से एक भी, अभी तक अपना देखना हुआ नहीं. तुम्हीं तीन अच्छी रेकमेंड करो तो खोज-खाज कर अपन बिसमिल्ला करें.
प्रमोद जी,जनाब राऊल रुईझ की यह तीन फिल्में जरुर देखिएगा.बहुत ही भूलभुलैय्येदार और कवितामय.एकदम काफ्का,बोरखेस,पाविच की लिखावट की तरह.
1.The Blind OWl
2.Three lives and only one death
3.The Lost Domain
@शुक्रिया, निखिलेश.
वैसे पाविच की कौन किताब दाबे रखे हो? जो भी दाबे रखे हो, द शब्दकोश ऑफ खजार्स से अलग, अपराध है, जबकि मेरे पते पर भिजवा सकते थे..
हाः हाः, प्रमोद जी,खजार शब्दकोश के अलावा पाविच की "The landscape painted with tea". तथा "Last love in Constantinople" यह दो किताबें मेरे पास है,तीसरी "the inner side of the wind" भी कुछ ही दिनों में हाथ में आनेवाली है.
लगे हाथ आप को एलिसेओ सुबिएला के फिल्मों की सिफारिश करने का मन हो रहा है. खास तौर पर
" Last images of the shipwreck" अवश्य देखिएगा.
@हा हा का निर्मम खेल रहे निखिलेश गर्वेश, तुम बम्मई में रहते हो तो फिर ज़रूरी है कि तुम्हारा खोज ठिकाना हमरे पास हो, मगर नहीं है, कैसे नहीं है? अपना पता नया, पुराना, मेलियाओ. शीघ्र.
सार्थक सिनेमा के लिए जानकारी देने की कोशिश के लिए आपको साधुवाद.
अलख जगाए रखे
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