याद है लीनो वेंतुरा और नौजवान बेलमोंदो की काली-सफ़ेद उदास, तने तार सी चोट करती, पेट में गांठ बनाती फ्रेंच थ्रिलर “द बिग रिस्क”? सन् साठ की बनी फ़िल्म की स्टोरीटेलिंग और सिनेमैटिक उठान ऐसी थी कि दो साल पहले “टच ऑफ़ इविल” का सिनेमाई सप्तम बजा गए बाबू ऑरसन वेल्स भी उसे देखकर क्लॉद सॉते को दाद देते. सॉते हिंदी और हिंदुस्तानी प्रियसुदर्शन होते तो फिर सारे जीवन छोटा रिस्क, एक और रिस्क और तीन रिस्क की राइसाइकलिंग करते होते.. मगर फ्रेंच सिनेकारों का ही मज़ा है कि वो जीवन भर एक ही मुन्ना भाई और हम दिल दे चुके बलम नहीं खेलते, गाते और भुनाते रहते, सॉते एक अकेले नहीं थे, ढेरों फिल्मकारों के साथ है कि बड़ी सफलताओं के बाद पहचानी और भुनी लीक के दायरे से बाहर, एकदम दूसरे सुर की रचनाएं कीं. (अपना फ्रांसुआ याद आया? त्रूफो? '400 ब्लोज़', 'ज़ूल व ज़िम', 'शूट द पियानो प्लेयर', 'एदेल एच की कहानी' या 'फारेनहाइट 451' में कहीं कभी कोई समानता नज़र आई?सिवाय एक पहुंचे हुए सुर के खुमार के?). ख़ैर. होता है. फ्रेंच सिनेमा में दिखता है. त्रूफो वाले रास्ते पर बहुत सारे फिल्मकार चलते दिखेंगे. इसीलिए वेंतुरा की सनसनी के दस वर्षों बाद अस्वाभाविक नहीं कि 1970 में सॉते मिशेल पिकोली, रोमी श्नाइडर और लीया मस्सारी के साथ “द थिंग्स ऑफ़ लाइफ़” बना रहे थे,
फ़िल्म के आखिर का आधा घंटा कार एक्सीडेंट में पिकोली का जख़्मी होना और अवचेतन में खुद से गुफ्तगू का बड़ा डेंस डॉक्यूमेंटेशन है. ऐसी गुफ्तगू फ्रेंच फिल्मों में ही संभव होते हैं. एक्सीडेंट के कुछ पहले पिकोली एक दूसरी तरह की दुर्घटना से गुज़र रहा है, उसके साथ कार में बैठी उसकी प्रेमिका श्नाइडर उसकी बाबत कुछ नेक़ विचार उसके कोट पर टांक रही है, उसी बातचीत की चंद पंक्तियां, अंग्रेजी में, मैं यहां टीप रहा हूं :
“You love me because I'm here. But if you had to cross the street, you'd be lost. You're like an old man… I want to weep. Because I'm tired. Tired of loving you… I can't give you what you no longer have: an island, old friends, a boat... a school, I don't know... streets, towns, a garden... a story. We have no story. For you, it's like childless couples... It's a failure. I can do nothing about it… You've nothing to say?”
ज़ाहिर है पिकोली प्रेमिका के साथ किसी संगत बातचीत में उतरने की जगह तेज़ कार चलाते हुए उसे सर के बल खड़ा कर देने को कहीं ज़्यादा वाजिब समाधान समझता है.
2 comments:
शुक्रिया..बिग रिस्क अपने मतलब का सिनेमा लगता है..नाम नोट कर लिया है..सॉते साहब की ’थिंग्स आद लाइफ़’ देखी थी..और खतम होने के कई दिन बाद तक दिमाग मे रील चलती रही..सब कुछ खतम होने के बाद क्या बच जाता है?..शयद कुछ भी नही!!..जिंदगी के तयशुदा हाइवे से अपनी पसंद की पगडंडी का सफ़र निकाल पाना बिना मोटरगाड़ी को सर के बल खड़ा किये पासिबल नही हो पाता होगा..!! और सॉते साहब की एक और पिक्चर बड़ी शिद्दत से याद रहती है..जाड़े मे दिल का इमोशनल त्रिकोण तमाम घिसे-पिटे नुस्खों से अलग इशक की जियो-मेट्री की बानगी था..वायलिन बनाने वाले और बजाने वाली के दिलों के सुर कितने विषम और बेमेल हो जाते है कि मिले हुए की खुसी को ना मिले की प्यास कैसे ही पी जाती है..गॉर्जस अमेनुअल का दिप दिप रूप भले ठंड मे किसी के दिल मे गरमी ना ला पाये हमारा दिल तो आग आग हो जाता है..बहुत याद आने वाला सिनेमा था वो तब...
@बाबू, "जाड़े में दिल" का प्रापरली नाम लेके लोगन को देखे का मवका देते?
http://www.imdb.com/title/tt0105682/
जइसे एक बम्मई के एक भलमानुस बच्चे से हमें आज सुबहीं ही खबर हुई कि राऊल रुइज़ देखके हम जीवन धन्न कर सकते थे, गोकि अभी ले किये नहीं हैं..
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