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आमिर पॉपुलर सिनेमा के आदमी हैं और पॉपुलर सिनेमा की उनकी जो, जैसी समझ होगी उस पैरामीटर्स में कंसिस्टेंट रहते हुए आमिर ने एक ठीक-ठाक मनोरंजक और समझदार फ़िल्म बनाई है. दर्शील सफारी एक सुलझा और समझदार बच्चा है. पारंपरिक रूप से सफल बच्चे जो सबकुछ कर सकते हैं, उन्हें न कर पाने के तनाव और दबाव में जीवन के साथ उसके संबंध व दुनिया को देखने के उसके अंदाज़ के मोह में हम गिरफ़्तार बने रहते हैं, और मनोरंजक तरीके से बने रहते हैं. फ़िल्म का फर्स्ट हाफ लगभग दर्शील के कौतुक देखते, उनमें उलझे कैसे गुजर जाती है आपको ख़्याल भी नहीं रहता. इंटरवल में आमिर की एक हें-हें, ठें-ठें गाने के साथ एंट्री होती है और हीरो की चिंताओं को एस्टेबलिश करने के चक्कर में स्क्रिप्ट फ़िल्म के असल नायक दर्शील को काफ़ी वक़्त तक चुप करा देती है. ठेंठे वाले गाने के बाद परेशान बच्चे के बारे में परेशान होता आमिर का राम शंकर निकुंभ एकदम-से गंभीर हो जाता है और फ़िल्म का यह तीस-चालिस मिनट का ‘आमिरी’ समय उतना एंटरटेनिंग नहीं, उसके बाद फ़िल्म फिर अपना लय पकड़ती है और आखिर तक पकड़े रहती है. अंतिम क्षणों के करीब सिनेमा हॉल के अंधेरे में ज़रा-सी मानवीयता कैसे बचाये रखी जाये के लिए आंसू बहाते हुए हम भोले, भावुक दर्शक क्षणिक तौर पर सुखी बन जाते हैं.
दर्शील सफारी फ़िल्म की उपलब्धि है. उसकी स्वाभाविकता, स्पॉंटेनिटी, उसकी मैच्यूर समझदारी- सब. फिल्म के काफी सारे हिस्से काफी ढंग से लिखे और एक्ट भी किये गए हैं. दर्शिल का स्कूल बंक करके आवारा भटकना और दर्शिल के पैरेंट्स से मिलने निकले आमिर की सड़क यात्रा छोटे, दिलचस्प सिनेमेटिक मोमेंट बनते हैं. हालांकि दर्शिल के पिता और बोर्डिंग के अध्यापकों को विलेन बनाने के कैरिकेचर से बचा जाता तो शायद फ़िल्म और उम्दा बनती. गाने कहानी में ठीक से गुंथे हुए हैं और उनके साथ अच्छी बात है कि उनमें ऑर्केस्ट्रेशन का हल्ला नहीं है. उनमें एक कथात्मकता है लेकिन बुरी बात यह भी है कि उनमें मेलॅडी की अमीरी नहीं. तो अपने खत्म होने के साथ वे उतनी ही आसानी से भुला भी दिये जाते हैं. शायद यह एक कॉंशस प्रयोग हो और खुद में ऐसी बुरी बात न भी हो. सेतु का कैमरावर्क अच्छा, फ्रेंडली, एक्सेसिबल और कल्पनाशील है. वैसा ही प्रॉडक्शन डिज़ाईन और एनिमेशन का इस्तेमाल भी. अपने व अपने बच्चे पर उखड़ने के बाद आप जाकर फिल्म देख आयें, गिनकर पांच दफ़ा आंख के कोनों पर नमी महसूस करें, देखिए, मज़ा आयेगा. इससे अलग काम की एक और बात. . जहां तक अपने यहां समस्या-प्रधान चरित्रोंवाली संजय भंसाली की 'ब्लैक' टाइप फ़िल्मों की बात है, 'तारे ज़मीन पर' उससे दस नहीं तीस कदम आगे है और सिर्फ़ इसी बिना पर उसे मुहब्बत से देखी जानी चाहिए.