साल: 2007
भाषा: हिंदी
डायरेक्टर: शिमित अमीन
लेखक: जयदीप साहनी
रेटिंग: ***
डिसग्रेस्ड हीरो की शुरुआत हमेशा फ़िल्म को एक अच्छी बिगनिंग देती है.. आगे इस तनाव का सस्पेंस खिंचा रहता है कि हीरो के ग्रेस की वापसी कैसे होगी.. होगी या नहीं (होगी कैसे नहीं, भई, फ़िल्म है, वास्तविक जीवन नहीं?). उस लिहाज़ से ‘चक दे! इंडिया’ की शुरुआत तनी और कसी हुई नहीं.. लिखाई में भी इकहरापन है.. मगर उसके बाद फ़िल्म एकदम-से अपनी चाल पकड़ लेती है.. आमतौर पर हिंदी फ़िल्मों के घटियापे से अलग कैरेक्टराइज़ेशन पर ध्यान देती दिखती है.. चरित्रों के अंर्तलोक की जटिल परतों को बीच-बीच में मज़ेदार तरीके से पकड़ती है.. दर्शकों की दिलचस्पी बांधे रखती है.. और बड़ी मस्तानी चाल से आगे दौड़ती रहती है.. बीच-बीच में ऐसे डायलॉग आते रहते हैं कि आपको हिंदी फ़िल्मों के लेखन को दो कौड़ी का तय करने के फ़ैसले में असुविधा हो.
सबसे मज़ेदार है चक दे! इंडिया की लड़कियां.. कोमल चौटाला, प्रीति सबरवाल, विद्या शर्मा, बिंदिया नायक ऐसी लड़कियां है जिन्हें सोचते और अपनी बात कहता देख खुशी होती है.. कभी-कभी आगे बढ़कर उनसे हाथ मिलाने का मन करता है.. वे ऐसी लड़कियां हैं जिन्हें आप शायद आगे किसी फ़िल्म में न देखें.. क्योंकि वे ख़ूबसूरत और सेक्सी- कोई प्रीति झिंटा या रानी मुखर्जी नहीं.. अपने पैरों व दिमाग़ पर खड़ी आज की ज़िंदा लड़कियां हैं.. चक दे! इंडिया की व्यावसायिक सफलता के पीछे भी शायद दर्शकों का इन लड़कियों में अपना अक़्स देख लेना ही है.
लड़कियां कमाल की हैं, शाहरूख नहीं, जैसाकि प्रैस फ़िल्म के बारे में लिखते-बताते हुए बार-बार बोलती रही है.. हिंदी फ़िल्मों के ढेरों दुर्गुणों से मुक्त चक दे! की लिखाई, कैरेक्टराइज़ेशंस, अच्छी कास्टिंग फ़िल्म का अच्छे पहलू हैं.. तो कुछ बुरे पहलू भी हैं.. मसलन पूरी फ़िल्म में अनाप-शनाप बजता सलीम-सुलैमान का बैकग्राउंड स्कोर और वैसे ही ऊटपटांग गाने.. आप उसपर कान न दीजिए तो बाकी फ़िल्म फिट है.. हिट तो है ही.
ट्रेड के लिहाज़ से यह तथ्य भी मज़ेदार है कि यशराज की ज़्यादा महात्वाकांक्षी, मुख्यधारा के टंटों में ज़्यादा रची-बसी ‘झूम बराबर झूम’ बाज़ार से हवा हो जाती है.. और शिमित अमीन जैसे एक ‘अब तक छप्पन’ के ऑफ़बीट, अनफमिलियर निर्देशक की लाटरी निकल पड़ती है.
5 comments:
सब सही है गुरुजी..बस आखिर में सवाल रह जाता है.. चक दे माने क्या?
हमने भी देखी चकदे ।
वाक़ई अच्छी है । गानों के बारे में आपकी टिप्पणी लगभग सही है ।
लेकिन इस फिल्म का टाइटल गीत ठीकठाक है
पर शायद इस फिल्म से यशराज को समझ में आना चाहिये
कि भारतीय दर्शक की सेंसिविटी बदल रही है ।
झूम की बजाय चकदे
कहना उसे ज्यादा सुहा रहा है ।
हमारी देसी फ़िल्में इतनी घटिया हो चुकी हैं कि मैंने 'मरी भैंस की पूँछ पकड़ना' (बकौल कोमल चौटाला) ही छोड़ दिया था. इस फ़िल्म में भारत दिखता है, ताज़गी दिखती है और स्क्रीनप्ले और संवाद पर थोड़ी मेहनत की गई है. जिन भाइयों ने नहीं देखी है, देख सकते हैं, गालियाँ देने की गुंजाइस कम है.
हमारे ख़्याल से इस फिल्म की सफलता का श्रेय सभी को देना चाहिऐ क्यूंकि नयी लडकियां होने से फिल्म मे ताजगी सी नजर आयी और सभी ने बहुत ही कमाल का अभिनय किया है। और भाई हमे तो शाह रुख खान भी बहुत पसंद आया।
अगर देखा जाए तो चक दे! पूरी तरह से बकवास फिल्म है या यो कहें की बालीबुड का एक और घोर-मट्ठा… मेरी नजर में किसी भी फिल्म का प्लाट प्वाइंट ऐसा होना चाहिए जो दर्शक को उसके साथ कहानी को जानने की जिज्ञासा में संघर्ष करना पढ़े…मगर इसमें ऐसा कही नहीं है हम यह जान रहे होते हैं कि अब क्या होने बाला है…। कहा जा रहा है की नारी उत्थान पर बनी यह अच्छी फिल्म है पर यह देखे कि एक नारी को सफल होने के लिए पुरुष कंधे की आवश्यकता पड़ती ही है और जिस फिल्म की यह नकल है उसमें परीक्षक भी एक महिला थी जो इससे काफी अच्छी मुवी थी…।
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