11/15/2021

कूड़ंगल के कंकड़

इस वर्ष भारत से ऑस्‍कर नॉमिनेशन में भेजी गई फ़ि‍ल्‍म में मदुरई के देहातों के सूखे मैदान हैं। दो-तीन किरदार हैं उनके साथ कैमरा आगे-पीछे, लिंगर करता, चलता रहता है. हैंड-हेल्‍ड और स्‍टेडीकैम के लंबे-लंबे शॉट्स हैं. ग़रीबी की दुनिया है तो मोस्‍टली किरदारों के पैर नंगे हैं, नंगे पैरों के बलुआही सूखी ज़मीन पर चलने का धम्-धम् कुछ गूंजता-सा बजता रहता है. यही आवाज़ें हैं, या फिर गुस्‍से, झुंझलाहट और झगड़ों की गूंजें. संवाद बहुत ज़्यादा नहीं हैं, शायद फ़ि‍ल्‍म की एक-चौथाई भी न हो. पसीने और ग़रीबी में सुनसान व पत्‍थर हो रहे चेहरों की ठहरी हुई दुनिया है. देहाती ग़रीबी के सुनसान और चेहरों का लैंडस्‍कैप मन में बनता, मथता रहता है.

सात-आठ साल का बच्‍चा है वेलु, मां गोद की बेटी को लेकर नैहर निकल आई है, बेवड़ा बाप बीवी की गुस्‍ताखी पर तिलमिलाया हुआ है, नाराज़ है, बेटे से, ससुराल से, पूरी दुनिया से, बेटे पर अपनी भड़ासों का बोझ लादे, बेटे को साथ लेकर बीवी की खोज में निकला है, यही इतनी-सी फ़ि‍ल्‍म की कहानी है.  सात साल के ज़रा-से बच्‍चे के चेहरे पर जो असमंजस का सुनसान तना रहता है, वही फ़ि‍ल्‍म की कविता है. बहुत दुर्भाग्‍यपूर्ण है हिन्‍दी फ़ि‍ल्‍मों में ऐसी रियलिस्टिक कास्टिंग नहीं होती.  बेमतलब की अमीरी के हज़ारों होंगे, ग़रीबी के चेहरे हिन्‍दी के कास्टिंग डायरेक्‍टरों के पास नहीं.

फ़ि‍ल्‍म का कैमरावर्क बहुत सधे हाथों का नहीं, बहुत सारे फ्रेम्‍स अटपटी नाट‍कीयताओं में उलझते रहते हैं. मगर लैंडस्‍कैप के रंगों में संवेदना और गहराई है. चेहरों में है. और दूसरी अच्‍छी बात ग़रीबी के सुनसान का साउंड ट्रैक है, अनावश्‍यक बैकग्राउंड स्‍कोर की कैसी, किसी भी तरह की भराईनहीं. और एक घंटे तेरह मिनट की फ़ि‍ल्‍म की लंबाई दुरुस्‍त है. पीएस विनोथराज की पहली फ़ि‍ल्‍म है, आगे वे और अच्‍छा करें इसकी उन्‍हें बहुत शुभकामनाएं.

11/08/2021

द ग्रेट व्‍हॉट, नो क्‍लू

देह पर 'बावर्ची' का कॉस्‍ट्यूम  चढ़ाये वैसे भी तबीयत किसी को थप्पड़ मारने को मचल रही थी. थप्पड़ नहीं मारा, किताब हवा में उछाल दिया. पतला-सा नॉवल था, अंग्रेजी में, बेशऊर उड़ा, बेहया तरीके से जया के पैरों के पास गिरकर ढेर हुआ. जया सूती फूलदार सिंपल साड़ी में थी, घुटनों पर हाथ जोड़े, बरामदे की सीढ़ि‍यों पर गुमसुम बैठी, सामने तकती जाने क्या सोच रही थी, गिरी किताब का नहीं सोचा. किताब गिरी रही. पेपरबैक. अंग्रेजी की. राजेश झींकता, आकर सीढ़ि‍यों के पहलू खड़ा हो गया. जया अपने में थी, नहीं ली नोटिस. स्टार को तक़लीफ़ हुई. स्टार को हमेशा तकलीफ़ होती रहती थी. तक़लीफ़़ होने के पहले ही वह बेचैन होने लगता कि हो रही है, और आस-पास दूसरे परेशान कैसे नहीं हो रहे? दूसरों की परेशानी की स्टार बहुत सोचता. फ़ि‍लहाल वह जया के परेशान नहीं होने से परेशान था. 

राजेश : तुम्हारे लंबू ने पढ़ी है ये किताब?

राजेश ने ज़मीन पर बेमतलब हो रही पेपरबैक की तरफ़ इशारा किया. जया ने इशारा देखा, किताब नहीं देखी. 

जया : प्लीज़, काका, मैं फिर कह रही हूं, आप अमित जी को लंबू मत बुलाया करो! 

काके ने जवाब नहीं दिया. लेने का काका को शौक था, देना, साधारण जवाब भी, काका को बेचैन और परेशान करता. ऋषि दा को भी शिकायत थी काका आनसर क्यूं नई करता? माथाये पाथर कलेक्शन किया है, क्या  रे? नो जवाब. नथिंग. तुमारा आगे मैं टोटल टायर हो जाता, काका, सच्ची! 

अमित जी लंच के बाद अनवर अली और जलाल आगा के साथ जलाल की फियट में आये. फुसफुसाकर जया से कहा आपके हीरो ने मुझे हलो नहीं कहा. फिर. जया ने हाथ की किताब अमित के हाथ थमाते सवाल किया, ये पढ़ा है आपनेे?

फित्ज़जैरल्ड . ग्रेट गेट्सबाई. अमित ने सवा सौ पृष्‍ठों के पेपरबैक के पेज़ उलटे-पुलटे. जया को बुक बैक कि‍या, मुंह फेरकर कहीं और देखने लगेे. 

उस लड़की को नहीं देख रहेे थे जिसे उड़ती नज़रों से 555 के तीन कश लेते एक भरी नज़र काका ने देखा और थोड़ा असमंजस में परेशान होते रहे कि शायद बंगाली है. शायद ऋषि दा के पीछे-पीछे आई है. मगर अभी तक ऑटोग्राफ़ के लिए मेरे पास क्यों नहीं आई? इसने पढ़ी होगी किताब? चूमना जानती है? रियल चुम्मी ? तब तक फिर किताब का ख़याल आया और शक्ति (सामंत) से झुंझलाहट हुई. क्या सोचकर दी थी किताब? या सचिन (भौमिक) ने दी थी? राजेश को याद नहीं. राजेश याद करना चाहता है सुबह सात बजे किसी प्रोड्यूसर का फ़ोन आया था. गुजरात में प्रापर्टी खरीद देगा जैसी बकवास बातें कर रहा था. राजेश ने गालियां देकर उसका मुंह बंद किया था. या गालियां रुपेश (कुमार) ने दी थी? राजेश को याद नहीं. 

दादा का एक असिसटेंट भागता आया, सुरेश, या दिनेश. काका, आपके लिए फ़ोन है- नंदा मैम का! 

ये क्‍या चाहती है? मैं इसके साथ अब और फि‍ल्‍म करना नहीं चाहता! 

राजेश ने कहा जाकर बोलो, शॉट चल रहा है.  

सुरेश, या दिनेश, पलटकर जाने को हुआ, काका ने पीछे से आवाज़ दी, सुन! गाना जानता है?

लड़का अब लड़का नहीं रहा था, फिर भी काका को हमेशा समझ लेना उसी के क्या, उसके उस्ताद के भी वश की बात न थी.  

हां और ना और हां के बीच की किसी मुद्रा में उसने सिर हिलाया. 

राजेश ने एकदम से गाना शुरु किया. तुझपे फ़िदा, मैं क्यूँ हुआ, आता है गुस्सा मुझे प्यार पे, मैं लुट गया.. मान के दिल का कहा, मैं कहीं का ना रहा, क्या कहूँ मैं दिलरुबा, बुरा ये जादू तेरी आँखों का, ये मेरा क़ातिल हो गया.  गुलाबी आँखें, जो तेरी देखी, शराबी ये दिल हो गया. 

जा, नंदा से बोलना काका इज़ मिसिंग यू! और सुन, ये किताब लिये जा, पूछना उसने पढ़ी है?

(किताब अंजू महेन्‍द्रू ने भी कहां पढ़ी थी? मुमताज़ का मानना है उसने काका को भी ठीक से नहीं पढ़ा. शशि कपूर का मानना रहा खन्‍ना वॉज़ अ बैड बुक. यू कुड गो ऑन रीडिंग हिम फॉर आवर्स, दैन ‍रियलाइज़ यू वर नॉट रीडिंग, द बुक वॉज़ नेवर देयर, इन फैक्‍ट देयर वॉज़ नथिंग देयर. डिंंपल कहती हि‍ वॉज़ अ बैड एक्‍टर, शशि कपूर, एक्‍सेप्‍टेड. बट द मैन वॉज़ अ ग्रेट चार्मर. एंड अ गुड रीडर ऑफ पीपल. शशि साहब ने ही कहा तुम सत्‍यदेव दुबे के नाटकों से दूर रहो, बच्‍ची हो, बरबाद हो जाओगी.) 

भीम की जय

यह जिस पर लोग बहुत ‘जय’, ‘जय’ कर रहे हैं, मेरे पास लिखने को कुछ नहीं है, सिवाय इसे याद करने को कि राष्‍ट्रीय हिंदी सिनेमा से क्षेत्रीय, और ख़ास तौर पर दक्षिण का सिनेमा आत्‍मविश्‍वास से चार कदम आगे चलने लगा है. मगर इतना ही, इससे आगे कहने पर मुंह बंध जाता है. ‘सरदार उधम’ के बारे में भी नहीं था. हां, उसमें यह बात थोड़ी बेहतरी वाली थी कि ड्रामा के तत्‍व ज़रा कम, अंडरप्‍लेड थे. एक सुर में कहानी आगे-पीछे घूमती चलती थी, सुजीत सरकार का सिनेमा हालांकि निजी तौर पर मुझे पसंद है, मगर 'उधम' में दिलचस्‍पी बनाये रखना मेरे लिए मुश्किल काम हो रहा था. ख़ैर, उधम के बरक्‍स ‘जय जय’ में ड्रामा बहुत-बहुत है. शुरुआती पंद्रह मिनटों के बाद बाकी के एक सौ पचास मतलब खालिस ढाई घंटे, एक लूप की तरह पलट-पलटकर दलितों की पिटाइयां हैं. उनकी चीख़-चीत्‍कार, दुर्गति, तबाहियों की रीपीटिटीव तस्‍वीरें हैं, लोगों के जीवन में झांकने, समझने की कोई इन्‍वॉल्विंग अंतरंगता नहीं है, न पिटते दलितों की बाबत, न उन्‍हें पीटनेवालों की दुनिया के बारे में. जो है वह बड़ा संक्षिप्‍त और वन लाईनर नुमा है, ज़्यादा सारा कुछ नुक्‍कड़ नाटक की बुनावट-सा है. प्रतिकारी, क्रांतिकारी नायक वक़ील चंद्रु के चेहरे पर कभी भाव नहीं आते, एक बेजान मुर्दनगी तनी रहती है, सोच के पेचीदा क्षणों में वह दीवार पर बॉल फेंककर उसे कैच करता रहता है, मैं भी रह-रहकर फिल्‍म कैच करने की कोशिश कर रहा था, थोड़ी देर बाद हिम्‍मत ने जवाब दे दिया.

11/04/2021

हैप्‍पी दीवाली

राजू का रोज़ी से एक वादा रहा होगा, मेरा एमानुएल देवोस से नहीं रहा। कभी नौबत नहीं आई। एक क्रिसमस कथादेखते समय यह बात ख़याल में आई थी कि फुसफुसाकर एमानुएल से कह दूं, कि आरनॉ देस्‍प्‍लेंसां ने फ़ि‍ल्‍म में इतना ज़रा-सा रोल दिया, और उसमें भी तुमने चार चांद लगा दिया, कैसे किया भला? एमानुएल कुछ नहीं बोली। अच्‍छे एक्‍टर बहुत बार बहुत देर बाद बोलते हैं। कथा के कुछ वर्षों पहले ज़ाक ऑदियार की एक फ़ि‍ल्‍म आई थी, “मेरे होंठ पढ़ो”, इस बार भी एमानुएल थी, विन्‍सेंट कासेल के साथ। मैं कहीं नहीं था। कहीं का नहीं था। आवाज़ नहीं थी। शोर और तोड़-फोड़, घबराहटों की थी, एमानुएल के नहीं थी। उसका किरदार ही म्‍युटेडथा, कुर्सी पर बैठी वह दूर से तकती रहती और लोगों के होंठ पढ़कर उन्‍हें सुन लेती। लोगों को उसके सुनने के भावों को पढ़ते हुए मैं सन्‍न होता रहा। इस तरह से भी एक्टिंग होती है? मगर फ्रेंच सिनेमा के बहुत सारे एक्‍टरों में ऐसा बहुत कुछ है कि आप देखकर सन्‍न होते रहें। मैं जब दुनिया में नहीं आया था तब से रहा है। किसी अगले पोस्‍ट में नाम गिनाऊंगा।

क्रिसमस कथा से पहले देसप्‍लेसां की एक और फ़ि‍ल्‍म थी, “राजा और रान”, उसमें एमानुएल को देखने जीभ पर शराब रखकर ख़ुद को भूलने जैसा था। तब भी मन में ख़याल आया था अब एक वादा कर ही लूं। मगर एमानुएल मुझे देख नहीं रही थी। मेरे होंठ पढ़ना तो बहुत दूर की बात। मैं ही लौट-लौटकर उसे पढ़ता रहा। एक के बाद एक दिलचस्‍पी का रहस्‍यलोक बुननेवाली कई फ़ि‍ल्‍में थीं – “ज़ील की औरत”, “दूसरा बेटा”, “फुसफुसाहट। और फिर कल रात, मुंह में छेना-पायस और एमानुएल के अभिनय का स्‍वाद गुनता मैं परफ़्यूम्‍सदेखकर देर तक सन्‍न होता रहा। तो आदमी (या औरत) इस तरह से भी महकों में गुम सकता/सकती है। और अपने दर्शकों को गुमा। सकती है? इम्‍पोस्सिब्‍ल!

सोचकर दंग और तंग अभी भी हो रहा हूं कि मैंने एमानुएल से कभी कोई वादा कैसे नहीं किया। क्‍या वादा किया होता और करके उसे फिर निभा नहीं पाया होता वह दूसरी कहानी होती, मगर वादा कर सकता था, और किया नहीं। इसकी टीस मन से जाएगी नहीं। फ्रेंच सिनेमा और एमानुएल देवोस की एक्टिंग ही नहीं, मन में हज़ार और टीसें हैं, कुछ भी कहीं नहीं जाने को। छेना पायस से मुक्ति नहीं मिलती, नौ मिनट की बहक और संतोष का एक छद्म भले मिलता हो। सिनेमा भी क्‍या है, एक समानान्‍तर संसार की भुलावे की छायाएं ही तो हैं? फिर भी, एमानुएल, स्टिल नॉट नोइंग तुम्‍हारा पारिवारिक, सामाजिक सीन क्‍या है, आई टेरिबली मिस यू। फ़ील ए हॉरिबल होल इनसाइड माई हार्ट। और वादा-सादा तो चलो उसके बारे में अपने दोष क्‍या गिनायें, एक हल्‍का कोई जेस्‍चर तक टुवर्डस यू कुछ नहीं किया, आयम सो टेरिबली सॉरी, रियली। आठ और बारह साल पहले एक हैप्‍पी दीवाली तो कह ही सकता था? बट सी, नहीं कहा। ठीक है, अब कह रहा हूं, मुंह पर हाथ धरकर ही सही। सुन रही हो

11/03/2021

कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे..

गोपालदास नीरज पर फ़ि‍ल्‍म डिविज़न ने आधे घंटे की एक डॉक्‍यूमेंट्री चढ़ाई है। 

जैसा आमतौर पर समाज कवियों को बरतकर निकल लेता है, लद्धड़-सा ही काम है, मगर फ़ुरसत लगे तो कभी एक झलक ले लीजिए। कवि के बचपन की ग़रीबी और इटावा का पास-पड़ोस दिखेगा। कवि ख़ुद दोस्‍तों के साथ उम्र की थकान ओढ़े ताश की एक बाजी खेलते दिखेंगे। अपने ख़ास शब्‍दों के चयन और रवानी की टेकनीक पर कुछ बोलते-बतियाते भी..

10/15/2021

बाप के दर्द होता है

नेटफ्लि‍क्‍स पर एक रुमानियन फ़ि‍ल्‍म है, ‘पापा पहाड़ हटाते हैं’, सरकारी इंटैलिजेंस की नौकरी से बाहर आया मीरचा पहाड़ क्‍या, पहाड़ के बापों को हटा सकता है, देश जितना पिछड़ा और संस्‍थागत तौर पर जर्जर हो, पहाड़ हटाने, तथ्‍यों को दबाने, संस्‍थाओं का अपने हित व स्‍वार्थ में बरतने की ताक़त उतनी ही बढ़ भी जाती है। 1989 में निकोलाय चायचेस्‍कू के तख्‍ता-पलट से रुमानिया तानाशाही के पाप से मुक्‍त नहीं हो गया। समाज से एक तानाशाही हटती है तो समाज दूसरी महीन तानाशाहियों को जगह देने की ज़मीन निकाल लेता है, मीरचा जैसे लोग ऐसी ज़मीनों के नेटवर्क से बेहतर वाकिफ़ हैं, इसलिए गर्लफ्रेंड के साथ पहाड़ों की तफरीह पर गया बेटा जब उन पहाड़ी तूफ़ानों में ऊपर की बर्फीली दुनिया में गुम गया है, मीरचा इसको ठेलता, उसको धकेलता बेटे की खोज में पहाड़ों को हिलाने, बेटा पाने पहुंचता है। और रुमानिया की पिछड़ी दुनिया में ताक़त और पहुंचदारी के संसार को हम धीरे-धीरे खुलता देखते हैं। मतलब नेगोशियेसन ऑफ़ पॉवर इन अ नट-शेल।

द कोमी रूल

कहानी डेढ़ और लगभग दो घंटों के दो एपिसोड्स में है। एफबीआई का डायरेक्‍टर जेम्‍स कोमी (कार्यकाल : 2013-2017) अपने को अपोलिटिकलकहता है, संस्‍थागत नैतिकता और ईमानदारी से काम करने में यकीन रखता है। मगर कोमी और उसके मातहती में रात-दिन मेहनत करनेवाले देख रहे हैं कि पुतिन का झूठतंत्र, हिलरी क्लिंटन के ई-मेल्स की हैकिंगऔर तत्‍संबंधी दुष्‍प्रचार अमरीकी लोकतंत्र में कैसे न केवल घुसपैठ कर चुका है, उसने एक ऐसा डरावना रास्‍ता खोल दिया है जहां अमरीकी शासकीय संस्‍थाएं ख़तरनाक तरीकों से कॉम्‍प्रोमाइसहो सकती हैं, हो सकती हैं नहीं हो रही हैं। इसे रोकने का एक ही तरीका है कि प्रशासन अपनी पूरी ताक़त से पुतिन और पुतिन की कठपुतलियोंके खिलाफ़ मोर्चा खोले, मगर कैसे मोर्चा खोले जब नवनियुक्‍त राष्‍ट्रपति डोनाल्‍ड ट्रंप ख़ुद पुतिन और उसके लुटेरे ओलिगार्कों के आर्थिक अहसानों और राजनीतिक मैनिपुलेशंसमनुवरिंगसे सत्‍तासीन हुआ है! सीधी लीक के सीधे विश्‍वासों पर चलनेवाले जिम कोमी के काम का रास्‍ता बड़ा टेढ़ा व संकरा हो रहा है। वह अपने काम में ईमानदारी की बात करता है, उसका राष्‍ट्रपति उससे निष्‍ठाऔर भक्तिचाहता है। और जैसाकि लगभग पूरी तरह बदल चुके और मैनिपुलेटेडअमरीकी शासन के गंवरपने और दबंगई में स्‍वाभाविक था, चुन-चुनकर ट्रंप की निष्‍ठा से बाहर के लोगों को बाहर किया जा रहा था, जिम कोमी भी बाहर हुए। उनकी पूरी टीम बाहर हुई। शासन की मशीनरी के इस तिया-पांचा की ताक-झांक और प्रशासकीय नैतिकताओं के जंतर-मंतर की ये टहल दिलचस्‍प है। कोमी का रोल जैफ डैनियलस ने किया है, और ट्रंप का अभिनय आईरिश एक्‍टर ब्रैंडन ग्‍लीसन ने। दोनों ऊंचे पाये के अभिनेता हैं। शोटाईम के बनाये इस मिनी-सी‍रीज़ को डायरेक्‍ट बिली रे ने किया है।

9/18/2021

मध्‍यांतर

एक फ़िल्‍म पर कुछ लिखना चाह रहा था, मगर माथे में ताक़त नहीं बन रही। शायद कुछ दिनों में बने तब लौटूंगा द नेस्‍टपर। फ़िलहाल नेटफ्लिक्‍स की अनकही कहानियांकी तीन कहानियों में से बीच की एक कहानी की ओर उंगली पकड़कर आपको ले चलने की कोशिश करता हूं। कहानी पुरानी, 1986 की लिखी है, 2018 में कन्‍नड से अंग्रेजी में अनुदित जयंत कैकिनी की कहानियों को डीसीबी पुरस्‍कार से पुरस्‍कृत किया गया था, किताब का शीर्षक है, ‘’नो प्रसेंट प्‍लीज़’ (एक उपशीर्षक भी है, ‘मुंबई स्‍टोरीज़’), किताब में काफ़ी मज़ेदार कहानियां हैं, उस लिहाज़ से अभिषेक चौबे ने मध्‍यांतरनाम की जिस कहानी को अपनी फ़िल्‍म के लिए चुना है, वह अपेक्षाकृत कुछ ढीली और कमज़ोर कहानी है, मगर इसलिए भी अभिषेक की तारीफ़ की जानी चाहिए कि उन्‍होंने अपनी स्क्रिप्‍टिंग, सिनेमाकारी से उसमें एक भरा-पूरापन, एक ज़िंदा ऊर्जा भर दी है। महानगर के उपनगरीय जीवन की बदहाल, असंवेदन उदास संसार में सपनों को सहेजने के कोमल तिलिस्‍म को रिंकी राजगुरु का चेहरा अपनी मार्मिकताओं में निखारता चलता है। खुद को हीरो-हिरोईन की कल्‍पनाओं में बहलाने की चार-पांच मिनट की अदाबाजियां हैं, अदरवाइस कहानी के पैर कायदे से ज़मीन पर बने रहते हैं। 'अनकही..' की बाकी दोनों कहानियों पर कुछ नहीं कहुंगा, मगर मौका लगे तो बीच की मध्‍यांतरदेख डालिये।

9/10/2021

लघुकाय भेदकारी दिलदारियां

 

तीन फ़ि‍ल्‍मों की तीन रातें। बहुत देर और बहुत दूर तक आपकों फंसाये रहती हैं। जैसे अफ़ग़ानिस्‍तान पर आनंद गोपाल की 2015 की किताब। किताब पढ़ते हुए बार-बार होता है कि आप हाथ की किताब कुछ दूर रखकर सोचने लगते हैं। और देर तक सोचते रहते हैं कि इस दुनिया का हिसाब-किताब चलता कैसे है। या राजनीति का कूट संसार चलानेवालों को किसी गहरे कुएं में धकेलकर हमेशा-हमेशा के लिए उन्‍हें वहां छोड़ क्‍यों नहीं दिया जाता?

'फिरंगी चिट्ठि‍यां, 2012’, बचपन की दोस्तियों की दिलतोड़ तक़लीफ़ों की मन में खड़खड़ाती आवाज़ करती, और फिर किसी घने, विराट छांहदार वृक्ष के दुलार में समेटती दुलारी फ़िल्‍म है। अज़ोर, 2021’, अंद्रेयास फोंताना की पहली फ़ि‍ल्‍म।  प्रकट तौर पर कोई हिंसा नहीं, मगर समूचे समय एक दमघोंट किस्‍म का तनाव आपको दबोचे रहता है। क्‍या है यह तनाव? यह अस्‍सी के दशक का अर्जेंटीना है। अंद्रेयास का काम घातक तरीके का दिलफरेबी सिनेमा है, जैसे 2019 की शाओगांग गु की चीनी फ़ि‍ल्‍म है।

8/15/2021

वेटिंग फॉर जी..

कुछ लिखे जाने और न लिखे जाने का भेदिल संसार महिनों, या कहें तो सालों-साल का हो सकता है। जैसे ख़यालों में एक फ़ि‍ल्‍म का घरघराता रील घूमता रहता है, अंदाज़ होता है प्रोजेक्‍शन अब और तब शुरु हुुआ, और फ़ि‍ल्‍म जो है, वह खुलती नहीं। बरसते पानी की आवाज़ आती है। कोई औरत अपना काम समेटकर रसोई के बाहर झाड़ू घुमाती, आंगन के नल के नीचे पैर धोती दिखती है। एक आदमी घर लौटता है, एक घिसी पुरानी कुर्सी खींचकर सिर नवाये, गर्दन पर हाथ फेरता आवाज़ देता है, ''घर पे हो?" 

बच्‍चे बंद स्‍कूलों के मुहानों का ख़याली चक्‍कर लगाकर उन दोस्‍तों से कुछ पूछना चाह रहे हैं, जिनसे इन दिनों उनकी बात नहीं हो रही, लड़कियां हैं कहते-कहते ठहर गई हैं। सबकुछ वैसा ही कुछ अटका-अटका है जैसे न पहुंच पा रही फ़ि‍ल्‍म की कहानी के फीतों का खुलना है, जो नहीं ही खुलती। 

कब शुरु होगी। फ़ि‍ल्‍म। कभी होगी? 

होगी। फिर सुबह होगी हुई है तो फ़ि‍ल्‍म का होना भी होगा। इंतज़ार कीजिए। मैं ज़माने से करता रहा हूं। 'वेटिंग फॉर गोदो' का हिन्‍दी अनुवाद है आपके पास? किसी दोस्‍त के पास होगा। एक मेरी दोस्‍त थी उसके पास हुआ करता था, मगर इन दिनों उससे मेरी बात नहीं हो रही। मज़ा यह कि हम दोनों ही बहुत समयों तक गोदो का इंतज़ार करते रहे।