11/08/2021

भीम की जय

यह जिस पर लोग बहुत ‘जय’, ‘जय’ कर रहे हैं, मेरे पास लिखने को कुछ नहीं है, सिवाय इसे याद करने को कि राष्‍ट्रीय हिंदी सिनेमा से क्षेत्रीय, और ख़ास तौर पर दक्षिण का सिनेमा आत्‍मविश्‍वास से चार कदम आगे चलने लगा है. मगर इतना ही, इससे आगे कहने पर मुंह बंध जाता है. ‘सरदार उधम’ के बारे में भी नहीं था. हां, उसमें यह बात थोड़ी बेहतरी वाली थी कि ड्रामा के तत्‍व ज़रा कम, अंडरप्‍लेड थे. एक सुर में कहानी आगे-पीछे घूमती चलती थी, सुजीत सरकार का सिनेमा हालांकि निजी तौर पर मुझे पसंद है, मगर 'उधम' में दिलचस्‍पी बनाये रखना मेरे लिए मुश्किल काम हो रहा था. ख़ैर, उधम के बरक्‍स ‘जय जय’ में ड्रामा बहुत-बहुत है. शुरुआती पंद्रह मिनटों के बाद बाकी के एक सौ पचास मतलब खालिस ढाई घंटे, एक लूप की तरह पलट-पलटकर दलितों की पिटाइयां हैं. उनकी चीख़-चीत्‍कार, दुर्गति, तबाहियों की रीपीटिटीव तस्‍वीरें हैं, लोगों के जीवन में झांकने, समझने की कोई इन्‍वॉल्विंग अंतरंगता नहीं है, न पिटते दलितों की बाबत, न उन्‍हें पीटनेवालों की दुनिया के बारे में. जो है वह बड़ा संक्षिप्‍त और वन लाईनर नुमा है, ज़्यादा सारा कुछ नुक्‍कड़ नाटक की बुनावट-सा है. प्रतिकारी, क्रांतिकारी नायक वक़ील चंद्रु के चेहरे पर कभी भाव नहीं आते, एक बेजान मुर्दनगी तनी रहती है, सोच के पेचीदा क्षणों में वह दीवार पर बॉल फेंककर उसे कैच करता रहता है, मैं भी रह-रहकर फिल्‍म कैच करने की कोशिश कर रहा था, थोड़ी देर बाद हिम्‍मत ने जवाब दे दिया.

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