
पत्रकारी वीर बालकत्व पर एक अमरीकी फ़िल्म है.. फ़िल्म के पीछे यह कहानी है.. कहानी वैसे थोड़ी पुरानी, 1998, की है, मगर आज के समय में कहीं ज्यादा प्रासंगिक है..
पत्रकारी वीर बालकत्व पर एक अमरीकी फ़िल्म है.. फ़िल्म के पीछे यह कहानी है.. कहानी वैसे थोड़ी पुरानी, 1998, की है, मगर आज के समय में कहीं ज्यादा प्रासंगिक है..
Four films of Claire Denis: “Nenette and Boni”, “Beau Travail”, “35 Shots of Rum”, “White Material”.
Filming into books, three films by Australian Fred Schepisi: “A cry in the dark”, “Six degrees of separation”, “Last orders”.
Some Australian films worth a watch: “Walkabout”, “An angel at my table” (well, it’s from New Zealand, fine), “The year my voice broke”, “Shine”, “The adventures of Priscilla, Queen of the desert”, “He died with a felafel in his hand”, “Mary and Max”.
Some Meryl Streep marvels: “The deer hunter”, “Ironweed”, “Out of Africa”, “A cry in the dark”, “Adaptation”.
एडोलेसेंस ठुमकता नहीं गुज़रता, छाती में किसी जंगखाये खंजर की तरह गड़ा, अटका रहता है. जॉन दीगन की ऑस्ट्रेलियन फ़िल्म ‘द ईयर माई वॉयस ब्रोक’ (’87) इसी उलझे किशोरावस्था के भूगोल में घूमती है. धीमे-धीमे गिरह खोलने का कभी सुघड़ भावलोक बुनती है. हाई स्कूल निपटाकर अब कॉलेज की ओर निकलने से पहले की एक जश्नी सांझ में चंद किशोरों का मन व उनके आसपास का संसार लम्बे ट्रैकिंग शॉट्स में संवारती और खंगालती चलती, जॉर्ज लुकाच की सन् तिहत्तर की फ़िल्म ‘अमेरिकन ग्रैफिटी’ का पेस तो और धीमा है (गो सिनेमेटिकली ज़्यादा सुरीला है) क्योंकि यहां कहानी सिर्फ़ एक सांझ, गुज़रती रात की हो रही है, मगर चूंकि यह ऑस्ट्रेलिया नहीं अमरीका है, और जॉर्ज लुकाच का है, यहां जंगखाये खंजर के घाव नहीं हैं, ताज़ा-ताज़ा जीवन में उतरे कारों और प्रेम और ‘जाने कौन-सा कैसा तो भविष्य’ की अनिश्चिंताओं, तीव्र रोमान की, सुरीली कॉरियोग्राफ़ी है.
कल रात, तीसरी मर्तबा, फिर से ‘मैन ऑन द ट्रेन’ देखकर खुश हो रहा था, कि निर्देशक की अपने माध्यम के साथ क्या मोहब्बत है, इकॉनमी में एक्टर के चेहरे (ज़्यां रोशफॉर) से क्या-क्या भाव निकलवाते रहने की क्या माहिरी है. छत्तीस फ़िल्मों के लम्बे करियर में फ्रांसीसी पैट्रिस लेकों ने कुछ उतनी नहीं बनाई हैं, मगर काफ़ी सारी काफ़ी अच्छी फ़िल्में बनाई हैं, थ्रिलर्स के उस्ताद लिखवैया जॉर्ज सिमेनॉन की रचना पर आधारित ‘मोश्यू हायर’, मन के उलझावों के तारों का संगीत समझती ‘द हेयरड्रेसर्स हस्बैंड’, ‘गर्ल ऑन द ब्रिज’, ‘इंटिमेट स्ट्रैंजर्स’; या समय और समाज में सत्ता का महीन विमर्श बुनती, निहायत सुलझी फ़िल्में ‘सां पियेर की बिधवा’ व ‘रिडिक्यूल’.. कहीं से हाथ लहे तो, आखिर की दो तो ज़रुर ही देखें.
अमरीका, और शायद दूसरी भी बड़ी दुनिया की नज़रों में एक लगभग बेमतलब-सा देश होता है, जिसके होने पर अमरीका में ढेरों लतीफ़े होते हैं, भले उस बेमतलबी, आज के कारोबारी देश-समय में एक अनोखी, अनूठी निर्माण व वितरण की संस्था होती है, जिसकी छतरी के नीचे से न केवल क्लॉड जुत्रा का विरल तरल संसार (विनोदकुमार शुक्लीय संसार कहूं? मगर कुछ साहित्यिक परिचितों से पहले कहा था, वह बाद में जुत्रा प्रकरण पर मेरी राय सुनने से बचने लगे थे..) बाहर आया होता है, निगरानी में पूरा पूरा एक बागीचा होता है, कितनी, कहां-कहां की रुपकथाएं होती हैं, एनीमेशन का एक समूचा धनमन संसार होता है, बाकियों को बाद में समझते रहियेगा, फिलहाल यही एक और दो के ज़ायके में तरिये..
फ़िल्म देखना बड़ा मुश्किल काम है. हिंदी, हिंदुस्तानी और भारतीय फ़िल्में नहीं, वो तो अभी भी, और जाने कितने ज़मानों तक ‘अच्छे‘ के मुहावरों, बुनावटों से बाहर रहेगी; मैं सिनेमा के मार्मिक, सपनीले, अंतरंग छांहदार सुनहले धूपों की ओर इशारा कर रहा हूं, अच्छा, भव्य और वैभवकारी सिनेमा.. जिसका ‘अच्छा’ और ‘उदास’ देखते हुए आप नहाना, चाय पीना भूल जायें, उसकी डेंसिटी कुछ इस तरह आपके मन में घर करके बैठे, उसके सरस सरल एक्सेसिबल संवादों की मिठास, उसके किरदारों के एक्सप्रेशन, उसका स्पेस और उसमें कैमरे की लचक, महीनी का घूमना कि आपकी फिर उससे गुज़रने के बाद किसी से बात करने की तबीयत न हो, चहककर फेसबुक के स्टेटस में उसे याद करना आपको बेजा, भौंडी और घिनौनी हरकत लगे, तकिये में औंधे गिरे, मुंह गड़ाये चुप्प और सन्न आप सिर्फ़ यह सोचते फिरें कि कैसे जी लेते हैं लोग ऐसा जीवन कि उससे फिर ऐसा तरल सिनेमा निकलकर बाहर आता है, ज़ाक प्रिवेर जैसी लोग लिखाई कर लेते हैं, सिनेमा के उस शुरुआती दौर तक में ज़्यां गाबें की गुफ़्तगू कर लेते हैं, मैं विद्यासागर जी की संगत में बैठने की फोटु उतरवा लेता हूं, उनके व्यक्तित्व की महीनी का कुछ भी दिमाग में नहीं बना, बचा रहता, इतनी ज़रा-सी सौजन्यता तक नहीं कि फिर कभी उन्हें फ़ोन पर नमस्ते कहने की सूरत तक में ही उन्हें याद किया हो!
जीवन का अच्छा हमें इसी तरह सन्न करता है, अपने गुज़र चुकने के बाद एक तीखी कचोट और गहरे अवसाद के नशे में लपेट रहने की तरह घेरे रहता है, कि ओह, क्या था, और कि दोस्त, तब ठीक-ठीक समझ क्यों नहीं सके? ठीक-ठीक कभी समझ सकेंगे, कभी भी? इस एक छोटे, जीवन में? फ़ेल्लीनी को, क्लाउंस, ऑकेस्ट्रा रिहर्सल, और नाव चलती रही के संगीत, उसके भव्य सिनेमाई उन्वानों को? जहां सतह पर कुछ, किसी कहानी के नहीं ‘दीखने’ में भी कितनी सारी कहानियां खुलती होती हैं? एक ज़रा-सी ग़लतफ़हमी की टेक पर हिचकॉक कैसा भव्य ग़लत आदमी की दुनिया खड़ी कर लेते हैं, आठ और आधा की सांद्रा मिलो और कबीरियन रातों का फ्रांसुआ पेरिये ‘ला विसिता’ की उदास, मोहिनी कस्बाई मुर्खताएं? मैक्स ऑफुल्स सन् पचास में ‘चकरी’ बनाते हैं, जिसके साठ सालों बाद हिंदुस्तानी सिनेमा जिस चकरी के ‘च’ तक भी नहीं पहुंचता, साधन तो नहीं, मन के अज़ीज़ अरमानों में कहां कसर रह जाती है? आर्थर मिलर एक नहीं, एक के बाद एक अपने किरदारों से कैसी दिलअज़ीज़ लाइनें बुलवाते रहते हैं, फ़िल्म तक़लीफ़ और सिनेमाई सुख के कैसे नशीले कॉकटेल में आपकी पलकों पर गिरी रहती है, कैसे कोई जॉन ह्युस्टन बुढ़ाये गेबल के साथ कोई ‘मिसफिट्स’ बना लेता है? लोग याद करते हैं, ईनामों से नवाजी जाती है जेम्स कैमरोन की ‘अवतार’, कहां से उड़ाई गई है उससे बारह वर्षों पहले बनाई मियाज़ाकी की ‘मोनोनोके’ की कविता और उसका दर्द हमारे संभाले नहीं संभलता, हमें याद रहता है?
अच्छी फ़िल्म देखना बड़ा मुश्किल काम है.
आप प्लीज़ जाकर जौहर की अगिनपथ देख आईए.