बेनेट मिलर ने इससे पहले दो फीचर और बनाई हैं, ‘कपोटे’ व ‘मनीबॉल’, सधी फ़िल्में थीं, मगर पिछले वर्ष की रिलीज्ड ‘फॉक्सकैचर’ की बुनावट ज़्यादा सघन व महत्वाकांक्षी है. वह यह भी दर्शाती है कि पैसा व तकनोलॉजी के दबावों-तनावों में गहरे बंधे-फंसे मुख्यधारा तमाशालोक से इतर पश्चिम लगातार ऐसी फ़िल्मों के लिए भी स्पेस मुहैया करवा ही लेता है जो अपनी कहन में ईमानदार रहते हुए सिनेमा की अपनी महत्तर संभावनाओं व उसका औपन्यासिक संगठन हासिल कर सकें. मंथर गति की व प्रकट नाटकीयताओं से बचती पॉल थॉमस और वेस एंडरसन वाली बुनावट और आकांक्षाएं अदरवाइस हॉलीवुड में संभव नहीं होतीं. न अलेहांद्रो इन्नरीतु की ‘बियूटीफुल’ व पाओलो सौरेंतीनो की ‘ला ग्रांदे बेलेत्ज़ा’ का शिल्पगत विस्तार अपनी तफसीलों में हमें ऐसी कलात्मक संतुष्टि देता. (माध्यम में पैठ की इस समझ के लिहाज़ से हिन्दी सिनेमा अब भी निहायत इकहरा व स्थूल ही है, और जाने आनेवाले कितने वर्षों तक रहे.)
वापस बेनेट मिलर और उनकी ‘फॉक्सकैचर’ पर लौटते हैं. कहानी बहुत सादा और लूज़ली वास्तविक घटनाओं पर आधारित है. संक्षेप में इतनी भर है कि निहायत गरीबी में बड़े हुए दो भाई हैं जिनमें छोटा सन् चौरासी ऑल्मपिक का वर्ल्ड रेशलर चैंपियन रहा है, बड़ा भाई उसका कोच, व बहुत हद तक उसका देखवैया, अभिभावक है, और कुश्ती व जीतों के उनके इस निर्दोष सुखी खेल में कैसे तब खलल पड़ता है जब उसे संरक्षण देने के रास्ते दु पोंत जैसे एक निहायत अमीर धनपति की एंट्री होती है. दु पोंत स्वयं रेशलिंग का पुराना शौकीन रहा है और वह चाहता है कि उसकी साधन-संपन्न निगरानी में दोनों भाइयों को उनकी प्रतिभा के अनुकूल वाजिब ट्रेनिंग का स्पेस मिले, अगला ओलम्पिक पदक उसकी चौकसी में जीता जाये, दुनिया में दु पोंत परिवार के खेल-संरक्षण का यश फैले आदि-इत्यादि.
चूंकि दोनों भाई (बड़ा डेव, छोटा, चैंपियन, मार्क) खेल और वह भी कुश्ती की दुनिया के लोग हैं तो उनके पास बोलने को देह की भाषा है, मुंह से बोलना बहुत सीमित, फंक्शनल है. उसी तरह धनपति की बतकहियां भी बहुत संक्षिप्त व मशीनी होती हैं, जिसमें उसके निजी संसार की उपस्थिति से ज़्यादा अमरीकी गौरव, राष्ट्रीय धरोहर में उसके परिवार की भूमिका, नागरिक का गर्व व उत्तरदायित्व जैसी बातों पर लगातार बल होता है. मगर ये बातें सत्ता से लगातार जुड़े रहने और ऊंचे आसन से जनसंपर्क का सहज पारम्परिक परिवारिक संस्कार व अभ्यास है. इन बातों का ठीक-ठीक क्या मतलब है जानने व उनसे जूझने का जॉन दु पोंत की-सी हैसियत वाले व्यक्ति को जीवन में मौका मिलता है, न उस पर सोचने की उसे कोई ज़रूरत है. संभावी दूसरी मर्तबा का वर्ल्ड चैंपियन मार्क शुल्ज़ सुरक्षा व अमीरी के मोह में बंधा दु पोंत की दुनिया में अपने भोलेपन से दाखिल होता है और गाल पर पड़े दु पोंत के एक तमाचे की शक्ल में फिर इस दुनिया और उसकी हकीक़तों की उसकी समझ धीरे-धीरे खुलना शुरु होती है. इस संसार की प्राथमिक शर्त है कि उसका आंतरिक-बाह्य सभी प्रबंधन, संचालन धनपति की सनकी अनुकूलता में चले. सत्ता व ताकत की भाषा से अनजान, भोला डेव जब इस इक्वेशन को मार्क को बचाने की खातिर कहीं हल्के-से डिस्टर्ब करता है तो उसे धनपति के हाथों अपनी जान गंवानी पड़ती है.
मगर कुछ पंक्तियों में ऊपर दर्ज़ कहानी से ज़्यादा महत्वपूर्ण उसके शिल्प के घनेरे तफ़सीलों में है. अच्छे उपन्यासों की ही तर्ज़ पर अच्छे सिनेमा का आनन्द उसकी इस शिल्पगत सघनता में है. कि धीमे-धीमे खुलती दुनिया का कार्य-व्यापार लोगों व संसार के रंग-रूप के किन-किन, कैसे महीन कोनों को हमारे आगे उजागर, एजुकेट करता चलता है. जॉन की मां के रुप में वनेसा रेडग्रेव की एक संक्षिप्त उपस्थिति है, मगर मूलत: यह मर्दों का व उनके बीच के सत्ता के तनावों, व बदलते इक्वेशंस का संसार है.
जो दर्शक स्टीव करेल के करियर से आमतौर पर परिचित हैं उनके लिए ‘फॉक्सकैचर’ सचमुच तर्जुबा होगी कि जॉन दु पोंत के शुष्क, जड़ किरदार में उसने अपनी कॉमिक पहचान का न केवल कैसा दारुण कायाकल्प किया है, बल्कि समर्थ तरीके से यह भी दिखाया है कि एक अच्छा एक्टर फ़िल्म को कितने नये अर्थ दे सकता है. अपनी पारंपरिक पहचानों से अलग शैनिंग टैटम और मार्क रफल्लो को भी अपने रेशलर किरदारों में देखना अभिनय-वसूल आनन्द है.
ब्रावो, बेनेट मिलर.
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