अभिनय अजीब खेल है जिसमें बाज दफ़ा मौके बनते हैं जब खेलने को हाथ में कुछ नहीं होता. मसलन एकांत के ये कुछ सिचुयेशंस लीजिये. ज़रा-सी रौशनी के बिछौने में उठंगे लेटे, सरककर कोई चीज़ उठानी है, माथे के पीछे हाथ लिये किसी पुरची से कुछ पढ़ने लगना है, उठकर दरवाज़ा खोलना, सीढ़ियां उतरकर रसोई में आना, कुर्सी पर बैठना है, और इसी तरह कुछ देर बैठे रहना है. ऐसे इंस्ट्रक्शंस, जिसमें मुंह बनाना, या हाथ-पैर चलाना, या बंदबुद्धि की अन्य पशुवत हरकतें नहीं करनी हों, को पढ़कर हिन्दी सिनेमा का एक्टर क्या करेगा? या तो सचमुच मुंह बनाने लगेगा, या बैठी हुई कुर्सी से उठकर सचमुच दरवाज़े से बाहर निकल जाएगा जहां उसे ऐसी अमूर्त बुनावट की कथा और वैसे सोच के निर्देशक के साथ काम करके अपना नाम (और दाम) उलझाने का संकट न खड़ा हो.
हिन्दी सिनेमा किसी भी तरह के एकांत से, कैसे भी अमूर्तन से, तीन हाथ तो क्या कहें, तीन किलोमीटर की दूरी बनाकर चलता है. एक्टर को हमेशा कुछ करते हुए दिखना होता है, वह जब कुछ नहीं कर रहा हो का दृश्य निर्देशक की कल्पना व स्क्रीनप्ले की संरचना में हो तो भी वह फाईनल फ़िल्म में जगह नहीं पाती. कैसा भी किरदार हो, बिना दांत चियारे की उसकी हंसी नहीं होती. बंद मुंह की हंसी का ख़याल हिन्दी सिनेमा के लिए अभी भी घबराहट व एंग्साइटी का संसार है. इसीलिए भी है कि चेहरे व हाव-भाव की स्थूल अभिव्यक्तियां वह सीपी में फटी आंखों टहलता पीके हो, या सींखचों के पीछे और उससे बाहर उखड़ती व लाजवाब होती जर्नलस्टन बाला, उनकी इन्हीं उछल-कूद के बीच हिन्दी सिनेमा में हम अभिनय की पहचान में अब तक आंखें फाड़े रहते हैं. मेरी तरह का पुरनिया, थका हुआ दर्शक, आंख या अन्य कुछ फाड़ने के बजाय, ऊबकर फ्रेंच फ़िल्मों की तारिकाओं के न कुछ करने के एकांतिक क्षणों के महीन पाठों के संधान में निकल जाता है.
पांचवे दशक के एकदम शुरू की ‘कास्क द'ओर' के ज़माने से ही फ्रेंच सिनेमा में सिमोन सिग्नोरेत की भव्य उपस्थिति का जलवा रहा है. उनके पीछे-पीछे ज़्यां मोरु, एनी ज़ेरारदो, कैथरीन देन्युव, इमानुयेल बर्ट, इसाबेल अद्यानी, और जुलियेट बिनोश जैसी अनूठी अभिनेत्रियों की लाजवाब कड़ी रही है. उससे बाद के दौर में ऑद्री ततू, मारियन कोतीलार, सेसील दे फ्रांस, मेलनी लॉरें जैसी दिलकश तारिकायें रही हैं. इन सभी नामों के बीच जो एक कॉमन थ्रेड है वह ये कि अच्छी अभिनेत्रियां होने के साथ-साथ ये फ़ाम, फताल भी वैसी ऊंचाइयों वाली रही हैं. बिनोश या अद्यानी का अच्छा अभिनय सराहते-सराहते आपको ख़बर भी न होती थी और छिपी नज़रों आप खुद को उनकी देह सराहते, व उसमें कुछ का कुछ तलाशते, पाते थे! और आपका कसूर होता भी नहीं होता था. मगर फिर फ़ाम फताली इन करिश्मों से बाहर चंद कुछ और नाम हैं जिनका अभिनय देखते हुए हम वह अभिनय ही देखते रहते हैं, सुगठित सौंदर्य का दबाब हमारे देखने के आड़े नहीं आता. कारीन विराद की कॉमिक उपस्थिति याद करिये, कुछ नहीं दिखनेवाले चीज़ों व परिस्थियों के रोज़मर्रे के दृश्यों में भी वह अपनी मौजूदगी से दायें-बायें अर्थ भरती रहती है. फिर फ्रेंच सिनेमा की अपनी दिलीप कुमारा इसाबेल हुपेर हुईं, पारम्परिक अर्थों में किसी भी सूरत में मनमोहिनी तो कतई नहीं, मगर शाब्रोल की ‘मदाम बॉवरी’ या ‘पियानो टीचर’ की उन सन्न उपस्थितियों के मार्मिक अभिनय-राग को याद करिये, धीमे-धीमे फिर खुलेगा हुपेर किस कैसे कैलिबर की एक्टर है. इससे आगे एक तीसरा नाम लेता हूं, गई रात जिसकी एक फ़िल्म निरखते हुए इस टिप्पणी को दर्ज़ करने का ख़याल आया, चौंसठ की जन्मी यह हैं इमानुयेल देवोस. भारी देह व फैली हड्डियों वाली, कोई समझदार फ्लर्ट करने के पहले तीन मर्तबा सोचेगा (इतने वर्षों से मैं अभी तक सोच ही रहा हूं), ज़्यादा समझदार हुआ तो कुछ नहीं सोचेगा, सिर्फ़ उसकी लाजवाब उपस्थिति व अभिनय के जादू में बंधा सिनेमाई समय की गिनती भूल, देवोस की अगली फ़िल्म के इंतज़ार में, घबराया हिन्दी फ़िल्में देखता अपना समय खराब करेगा.
फिर ऐसा क्या ख़ास है भारी देह की, और बहुत हद तक टेढ़े नाक-नक्श वाली इस अनाकर्षक अभिनेत्री की उपस्थिति में? अच्छे अभिनय के लिए आमतौर पर लोग चेहरे पर विविधरंगी भाववन क्रियेट कर लेने की काबिलियत पर आश्रित होते हैं, इमानुयेल उससे तीन कदम और आगे जाकर अपने अभिनय के स्पेस में एक ऐसी दुनिया बुनती है जहां सिर्फ़ उसका चेहरा ही नहीं होता, पूरी देह, उसकी एक-एक बात, मानो उस किरदार विशेष की अंतरंग अनुभूतियों में सरोबार होता है. एक स्त्री का इस तरह अपनी देह से मुक्त हो जाना, और उसके समूचे अमूर्तन में अपने किरदार के कोने-अंतरे टटोलकर उसकी भव्य बुनावट खड़ी करते जाना, और एक बार नहीं, एक, दो, तीन, चार, पांच, छह, सात ऐसी ढेरों फ़िल्मों में, बार-बार उसे हासिल करना सचमुच विरल है.
इन पंक्तियों का लेखक बीस वर्षों से फ़िल्म बनाने की सोच रहा है, यह और बात है कि उसने इतने अर्से में बीस मिनट की कोई वीडियो भी नहीं बनाई, लेकिन कभी अगर कोई एक फ़िल्म बना सका, भले वह भोजपुरी में ही क्यों न हो, वह चाहेगा इमानुयेल देवोस उसका ज़रूर हिस्सा हों, भले वह आंख के आगे परदा किये (मेरे लिए, और सिर्फ़ मेरे लिए) ‘कितनी अकेली कितनी तन्हा तुमसे मिलने के बाद’ गाती ही क्यों न दीखे.
1 comment:
Many Thanks Pramodji for giving enough fodder for few months watching pleasure.
Regards,
Neeraj
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