धूप में चुनचुनाते माथे, किसी का इंतज़ार करते, आइसक्रीम चुभलाते-सी कुछ छोटी फ़िल्में होती हैं, फिर मीठे-लाल लबालब तरबूज की उम्मीद वाली कुछ बड़ी फ़िल्में होती हैं, और छोटी-बड़ी इन रंग व मिज़ाज अनुभूतियों से बाहर, टेक्नोलॉजी व सिनेमाई वितरण के पारम्परिक अर्थतंत्र को धता बताता, फिर एक स्वायत्त संसार होता है काली-सफ़ेद फ़िल्मों का, धीमे-धीमे फैलकर आपकी धमनियों में जगह बनाती और मन में एक अलग किस्म के गुफ़्तगू का आस्वाद छोड़कर माथे में डोलती, अटकी रहती हैं. आखिरी क्या ब्लैक एंड व्हाइट फ़िल्म थी जिसके देखे का मीठा अब तक बसा है मन में, अभी भी याद है?
रहते-रहते प्रोड्युसरों को बुखार चढ़ता है और वो पुरानी काली-सफ़ेद फ़िल्मों को रंगीन में बदलकर चार पैसा और कमाने के अरमान में कुलबुलाने लगते हैं, ऐसा करके काली-सफ़ेद फ़िल्मों में जो उनका एक विशिष्ट ‘टाइमलेसनेस’ का एलीमेंट होता है, उसे रंगीन के स्थूल व भद्दे में बदलकर, कुछ पैसा भले कमा लेते हों, सिनेमाई तृप्ति कोई कैसे पाता है, यह सवाल मेरे लिए अब तक घनघोर मिस्ट्री है.
और वह दूसरा सवाल भी कि आखिरी वह कौन फ़िल्म थी, काली-सफ़ेद, जिसके चपेटे में आपका मन गुनगुनाकर (सुहाना सफ़र है ये मौसम हसीं) बहलता नर्गिस और प्रदीप कुमार के दिल की गिरहों को खोल देने की चुनौतियां देने लगता था, या ‘साहब बीवी और गुलाम’ की छोटी बहू की ‘अजीब दास्तां है ये, कहां शुरु कहां खतम’ का तराना छेड़कर फिर किन्हीं अंधेरों में गुम हो जाया करता..?
पिछले कुछ अरसों की मेरे ख़याल में घूमकर सबसे पहले नोआ बाउमबाक (उच्चारण सही है?) की ‘फ्रांसेस हा’ आती है, और उसके पीछे-पीछे अलेक्सैंडर पाइन की ‘नेब्रास्का‘. फिर गये साल की पोलिश, ऑस्कर नवाज़ी गई, ‘इदा’ का अपने ठहरावी बुनावट में, धीरे-धीरे लोग व सैरों को देखने का, एक ‘रंग नहीं, ये काला-सफ़ेद बोलता है’ जलवा था. और फिर अभी ताज़ा-ताज़ा डिलन टॉमस की सनकों के गिर्द बुनी, एंडी गोदार की ‘सेट फायर टू द स्टार्स’ देख रहा था, उतनी महीन नहीं, फिर भी काली-सफ़ेद का संगीन तो है ही..
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