12/13/2009
दु:ख के रिसाव..
सामान्यतया, प्रकट तौर पर इतिहास हमेशा हमसे ज़रा दूर, कहीं बाहर चल रही परिघटना की तस्वीर बनी रहती है. वह अभागे लोग होते हैं जिनका जीवन सीधे उस भंवर की चपेट में आ जाए. क्लॉदिया ल्लोसा निर्देशित पेरु की फ़िल्म 'द मिल्क ऑव सॉरो' कुछ ऐसे ही अभागे संसार का सफर है. अपनी मां के मरने के बाद बहुत डरी हुई जवान नायिका फाउस्ता डगमग पैरों अपने अतीत में उलझी अपना वर्तमान सहेजने की कोशिश कर रही है. मज़ेदार यह है कि फाउस्ता की कहानी बड़ी आसानी से एक समूची सभ्यता का विहंगम दस्तावेज़ बनने लगता है. अंग्रेजी के एक ब्लॉग पर फ़िल्म की एक सीधी समीक्षा है, दिलचस्पी बने तो उधर नज़र मार लें. ब्रॉडबैंड अनलिमिटेड के जो सिपाही फ़िल्म डाउनलोड करना चाहते हैं तो उसका टौरेंट लिंक यह रहा.
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गोले, सामानों के शोले.. द स्टोरी ऑव स्टफ़
चीज़ों की ठीक-ठीक पहचान न होने से फिर चिरकुटइयां होती है. कल मुझसे हुई. लगा जैसे ड्रॉपबाक्स बता रहा है अपने पीसी का माल मैं उनके फॉल्डर में कॉपी करके चिपका दूं और फिर जिनसे कहूं वे ऑनलाइन उसे ड्रॉपबाक्स के फोल्डर में खोलकर पा लेंगे, डाउनलोड की ज़रुरत न होगी, सामान्य-ज्ञान वाला सामान्य और ज्ञान दोनों तत्वों को हवा करके मैं मुगालते में रहा कि इंटरनेट हवा में हवाई चीज़ें खुद-ब-खुद हो जायेंगी, लेकिन कहां से होतीं, भई? और क्यों होती? ऐसे तो घटिया साइंस-फ़िक्शन तक में न होती होंगी.
ख़ैर, मतलब चिरकुटई हुई, फ़िल्म को जो जान नहीं रहे, शायद चाह भी नहीं रहे, उनके झोले में ठेलने की कसरत की गुनहग़ारी कुबूलता हूं, बकिया क्या, बकिया यही कि भई, अज्ञानी के ज्ञान से तो यह सब आगे भी होता रहेगा ही. जैसे अभी कह रहा हूं कि यह कुछ पचासेक एमबी की सरल-सी समझदार एनीमेशन फ़िल्म है, आप जाकर देख लो, देख ही नहीं लो देखने से पहले एक नज़र यह उनके वेबसाइट पर भी डाल लो. दिलचस्पी बनी रहे तो यह फ़िल्म की लिखाई के पीडीएफ फ़ाइल का लिंक रहा, इस पर भी नज़र से दौड़ लें..
(भूपेन के लिए)
ख़ैर, मतलब चिरकुटई हुई, फ़िल्म को जो जान नहीं रहे, शायद चाह भी नहीं रहे, उनके झोले में ठेलने की कसरत की गुनहग़ारी कुबूलता हूं, बकिया क्या, बकिया यही कि भई, अज्ञानी के ज्ञान से तो यह सब आगे भी होता रहेगा ही. जैसे अभी कह रहा हूं कि यह कुछ पचासेक एमबी की सरल-सी समझदार एनीमेशन फ़िल्म है, आप जाकर देख लो, देख ही नहीं लो देखने से पहले एक नज़र यह उनके वेबसाइट पर भी डाल लो. दिलचस्पी बनी रहे तो यह फ़िल्म की लिखाई के पीडीएफ फ़ाइल का लिंक रहा, इस पर भी नज़र से दौड़ लें..
(भूपेन के लिए)
12/08/2009
आयम यूअर मैन..
अच्छा लगता है कि बाज़ार के शोर और बेमतलब बकलोलियों के इस दौर में, अब भी, रहते-रहते ऐसी फ़िल्म से टकरा जायें कि मन में तरावट फैल जाये, फ़िल्म के खत्म हो चुकने के बाद भी देर तक मन में कैसी तो अच्छी शराब पिये का असर बना रहे.. कुछ दिनों पहले अभय की मार्फ़त यूं ही संयोग से हाथ चढ़ी एक हिन्दुस्तानी डॉक्यूमेंट्री थी, ‘मालेगांव का सुपरमैन’, और यह दूसरी भी अभय के झोले से ही आयी- "Leonard Cohen: I'm Your Man", लेयनर्ड कोहेन की बतकहियां और उनके संगीत से मोहब्बत रखनेवाले दूसरे ‘गवैये’ उनके गानों को गाते हुए.. यू-ट्यूब का एक, दो, तीन लिंक जोड़ रहा हूं, और यह आखिर में चौथा, खुद पुरनके ‘लायन’ बाबा, बोनो की संगत में अपनी बादशाही गाते हुए, सुनते हुए मन तरे तो फ़िल्म भी देर-सबेर आप खोज लीजिएगा ही, नहीं खोज पाइएगा? गानों के कुछ लिंक यह रहे..
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लेयनर्ड कोहन
12/05/2009
एक पुरानी रुसी फ़िल्म के स्नैप्स..
मालूम नहीं था ब्लादिमीर मोतिल नाम का कोई निर्देशक रहा है, या रुस में कभी कोई 'वेस्टर्न' बनी है. सधी नज़र की बड़ी सुलझी कारस्तानी (अंग्रेजी में जिसे 'कूल' कहते) देखने के बाद खबर हुई वेस्टर्न के जानर की सोवियत रुस में पहली कोशिश थी, और दस लटके, ज़्यादा झटकों के बाद फ़िल्म बनकर जब 1970 में रिलीज़ हुई तो लोगों ने इतना पसंद किया कि बड़े लोगों की बड़ी-बड़ी फ़िल्म्ों भुला दी गई हैं, लेकिन 'रेगिस्तान का सफ़ेद सूरज' अब तक देखा जा रहा है..
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