‘मेट्रो’ के किरदार भी पूरी फ़िल्म में पानीपूड़ी और बड़ापाव खाते नहीं, मगर भरम बना रहता है. शायद अगले किसी क्षण खा लें ऐसा. लोकल ट्रेन दिखती रहती है. भायंदर और विक्रोली नहीं मगर वाशी और पनवेल की चकमक स्टेशनों को भी मुख्यधारा की सिनेमा में ले आने के लिए अनुराग बसु की तारीफ़ होनी चाहिए. हो ही रही है. लड़कियां सिसकारी भर रही हैं- ‘ओह, माई गॉड, दे रियली डू लुक लाइक द ट्रेन्स वी रेगुलरली ट्रेवल इन!’ आजतक जो ट्रेन में सिर्फ़ इसीलिए चढ़ते रहे कि चलती ट्रेन से छलांग लगाकर दर्शकों को हतप्रभ कर दें (यादों की बारात), डकैतों को ढेर (शोले) या जलती ट्रेन के मुसाफिरों को बचा लें, उस धर्मेंद्र को अचानक अनुराग बसु बारह लोगों से घिरे प्लेटफॉर्म पर दिखाकर लड़कियों का दिल जीत लेते हैं. धर्मेंद्र को अस्पताल की सीढ़ियों पर भी बिठा देते हैं.. धर्मेंद्र की नाटकीयता से एक कदम आगे जाकर ज़िन्दगी में पहली दफे शाइनी आहूजा को सीधे लोकल के अंदर खड़ा कर देते हैं, बाजू में खड़ी शिल्पा शेट्टी हिचकोलों में कभी भी उनपर गिर पड़ेगी ऐसा लगता ही नहीं, गिर भी पड़ती है! ऐसा न हो कि ऑडियेंस अभी भी कनेक्ट करने से छूटी रह जाए, फ़िल्म के क्लाइमैक्स में इरफ़ान ख़ान घोड़ा दौड़ाते हुए जगर-मगर स्टेशन में घुसे आते हैं.. और घोड़ा बिचारा तो रह जाता है मगर वे खुद, लड़कियों के चेहरों पे मुस्की लाते हुए, लेडीज़ कंपार्टमेंट के सीधे अंदर तक दाखिल हो लेते हैं.. एक मुख्यधारा सिनेमा में अब इससे ज्यादा यथार्थ किसी को क्या चाहिए? फिर क्या वजह है कि हम पजामे से बाहर होने को इतना आतुर हो रहे हैं?..
‘मेट्रो’ के खुलते ही (अभी टाइटल्स शुरू भी नहीं हुए) दर्शक को मुंबईया अफरातफरी की झांकी मिलने लगती है.. रिमझिम फुहारों वाली बारिश हो रही है.. इंट्रोड्यूस कराये जा रहे किरदार इंट्रोड्यूस होते ही बताने लगते हैं कि शहर में समय की कितनी मारामारी है और वे भीगते मौसम में भी कितनी चिंतायें ढो रहे हैं और मोबाइल पर बात करने से बच नहीं पा रहे.. माने यथार्थ शुरू हो जाता है. दूसरा यथार्थ हम ये देखते हैं कि छोटे शहर का लुंपेन इरफ़ान का कैरेक्टर मोंटी जो मुंबई में आकर एक ठीक-ठाक नौकरी में सेट हो गया है, कैसे उसकी लुंपेनई गई नहीं है और वह रिक्शे में बैठा आजू-बाजू गुजरते दूसरी रिक्शा सवार बालाओं की पिंडलियों व जांघों के गुदाज़पने की झांकियां लेता सुखी हो रहा है.. बारिश में छाते के नीचे इंतज़ार करते हम एक और नौजवान को देखते हैं जो अपनी ऑफिस की सहकर्मी कन्या की संगत की खातिर अपना छाता फेंक हंसता हुआ उसके छाते में घुस लेता है.. फिर तीन (हमारे एक मित्र के शब्दों में) वनमानुष किस्म के रॉकर्स हैं जो छूटते ही कभी भी गिटार टिनटिनाने और झुरझुरी जगाते, देह हिलाते अपने समय और शहर को परिभाषित करते हिनहिनाने लगते हैं..
फिर धीरे-धीरे खुलता है कि जिसकी छतरी के नीचे घुसकर नौजवान लड़की का दिल जीतना चाहता था वह लड़की दरअसल उसके बॉस के साथ भाग-भागकर सोती रहती है.. और चूंकि नौजवान लड़की के साथ-साथ शहर भी जीतने आया है (मुंबई में मॉर्निंग वॉक करने नहीं, जैसा वह खुद कहता है) तो लड़की के बॉस के साथ सोने के लिए बॉस को अपने फ्लैट की चाभी भी वही मुहैय्या करवाता है.. चूंकि वह जल्द तरक्की का भूखा है, लगता है वह ऑफिस के हर चौथे आदमी को किसी न किसी के साथ अपने फ्लैट में सुलवाने की दलाली कर रहा है.. तो एक सिलसिला-सा बन जाता है.. सब कहीं न कहीं कुछ पाना चाह रहे हैं.. ज्यादातर लड़कियों के साथ सोना चाह रहे हैं.. सो भी ले रहे हैं मगर सुखी नहीं हो पा रहे हैं.. बेचैनी का अजीब मुंबईया यथार्थवादी तनाव तना-तना-सा बना रहता है.. और बीच-बीच में वनमानुष कूद-कूदकर इस महानगर में ‘ज़िन्दगी कैसी है पहेली, हाय..’ की सामयिक व्याख्या करते रहते हैं.. तो ये है अनुराग बसु के ‘मेट्रो’ का दिल.. उससे ज्यादा कुछ नहीं है.. विशुद्ध चिरकुटई और एम्बैरेसिंग नंगई है.. कुशवाहा कांत व प्रेम वाजपेयी छाप डायलाग और एकता कपूर टाइप तड़फड़ाहटें हैं.. यथार्थ नहीं है. हवा में लटके वाशी या पनवेल या पता नहीं किस दुनिया के लोग हैं, यथार्थ जो है वह तेल लेने गई है.. और ले के पूरी फ़िल्म में आप सोचते रहते हैं अब शायद लौट आए, लौटती नहीं है!..
यह तो हुआ अनुराग बसु का दिल.. यथार्थवादी दिमाग कहां है? दिमाग इसमें है कि बिली वाइल्डर की एक पुरानी काली-सफ़ेद फ़िल्म ‘द अपार्टमेंट’ और हाल के वर्षों की एक अंग्रेजी फ़िल्म ‘लव एक्चुअली’ से वह चांप-चांपकर चोरी करती है.. और फिर चोरी ही नहीं करती, उस चोरी को दो कौड़ी के टेलीविज़न सोप में बदलकर यह भी अपेक्षा करने लगती है कि आप उसकी बौद्धिकता पर वाह-वाह भी करें..
ढाई घंटे की फ़िल्म में कुल जमा सात मिनट से अलग बंबई का कोई यथार्थ नहीं है.. टूरिस्टिक पोस्टकार्ड्स हैं.. जिसे देखकर ढेरों भले बेवकूफ़ भागे-भागे मुंबई चले आएंगे.. और यहां आने के बाद असली शहर देखकर वे अपना सिर और अनुराग बसु दोनों को पीटने के लिए मचलने लगेंगे!..
एक बात यहां और साफ़ करते चलें.. मैं कोई पैरेलल सिनेमा या प्रकाश झा टाइप रियलिज़्म का यहां केस लेकर नहीं बैठा हूं.. और न ही सिनेमा यथार्थ की कोई डॉक्यूमेंट्री होती या होनी चाहिए.. मगर सिनेमा के मार्मिक होने का इतना तकाज़ा ज़रूर बनता है कि अपनी कथा और शिल्प के मनोरंजन से वह यथार्थ के परतदार पेचीदेपने के बारे में आपकी समझ खोले.. आपके साथ एक रोचक संवाद स्थापित करे.. ‘मेट्रो’ ऐसा कुछ भी नहीं करती.. दो कौड़ीयों के स्तर पर भी नहीं करती.
दरअसल बदलते समय में पुराने बंबईया फ़ार्मूलों के चुक जाने के बाद अब यथार्थ को दिखाने का भी यह जैसे कोई नया फ़ामूर्ला बन गया है.. जिसका यथार्थ कुछ वैसा और उतना ही है जैसे कोई रामलाल या मिश्रीचंद बिसमिल्ला ख़ान से शहनाई की शिक्षा लेकर ट्रंपेट से हिमेश रेशमिया की धुन ठेलने लगें. वह संगीत की अदा होगी; संगीत तो नहीं ही होगा. अनुराग बसु की ‘मेट्रो’ भी अदाओं से गजबजाई हुई है, जो संगीत है वह सिर्फ़ वनमानुषी शोर है.
6/02/2007
मेट्रो का दिल और दिमाग: एक
कुछेक वर्ष पहले एक फ़िल्म आई थी ‘दिल चाहता है’. उसे देखकर बहुत लोग लुट और लोट गए थे. ‘दिल चाहता है’ की चर्चा होते ही भाई लोग उस पर ‘मुख्यधारा में यथार्थ का ताज़ा झोंका’ और बॉलीवुड का नया ‘कूल’ सिनेमा जैसे तमगे चढ़ाने को मचलने लगते. पता नहीं इन समझदारों के बीच फ़रहान अख़्तर पर बातचीत में अब उस कूलनेस को याद किया जाता है या नहीं.. अपने यहां प्रेस और मीडिया का गंवारपना व बौद्धिक दिवालियेपन के सबसे बेजोड़ नमूने उसके सिनेमा संबंधी कवरेज़ में ही अपनी समूची चिरकुटई में ज़ाहिर होते हैं. एक माई का लाल आगे बढ़कर सवाल नहीं करता कि ‘दिल चाहता है’ में यथार्थ का वह कैसा ताज़ा झोंका था जो मुंबईया जीवन की परतों को सचमुच किसी करण जौहर और यश चोपड़ा से अलग तरीके से खोलकर सामने रख रहा था! चिरकुटइयां वही थीं लेकिन पेश करने का तरीका ज़रा ज्यादा ‘कूल’ था? लेकिन ‘दिल चाहता है’ के इन तीन तिलंगों का जीवन किस तरह भला यशराज फ़िल्म्स व धर्मा प्रॉडक्शंस के उन नवाबज़ादों से किसी भी तरह अलग था जो न्यू जर्सी, न्यूऑर्क, लंदन जैसी जगहों में बेसबॉल कैप पहने ‘कूल ड्यूड’ जैसे जुमले फेंकते रहते हैं? सिर्फ़ इसीलिए कि वह न्यूऑक नहीं मुंबई के लड़कों की ज़िन्दगी की झांकी पेश करने की बातें कर रहा था? मुंबई के किस कॉलेज़ से निकलते हैं ऐसी धजवाले छोकरे और दिनभर इधर-उधर बीयर ढरकाते, ‘ओह, हाऊ कूल’, बने रहते हैं?.. पोद्दार कॉलेज में पढ़ते हैं या भवंस में? कि मीठीभाई.. एलफिंस्टन में? ट्रेन में कभी सफ़र करते हैं या नहीं? सड़क पर ठहरकर कभी बड़ा पाव खाया होता है इन कूल ड्यूड्स ने?
बात खिंचती चली जाएगी और इन दो कौड़ी के कूल ड्यूड्स के साथ हम मुंबई के यथार्थ के किसी भी डिसेंट रिप्रेज़ेंटेशन तक नहीं पहुंचेंगे. क्योंकि कूलनेस के एक डेकोरेटिव ‘प्रेज़ेंटेशन’ से ज्यादा वास्तविकता का कोई तत्व उसमें है ही नहीं..
इन सवालों पर मीडिया की बौद्धिकता भी उतनी ही दो कौड़ी की है जितनी दो कौड़ी के अपने ये कूल ड्यूड्स.. और उनके सिरजनहार. एक फ़िल्म का प्रशंसात्मक कोरस खतम नहीं होता कि दूसरे की शान में दायें से बायें दुदुंभि बजने लगती है. ‘सरकार’ अनोखी, ‘ब्लैक’ गजब.. और पता नहीं क्या-क्या झंडिया चिपकती और तमगे बंटते रहते हैं! कोई इन भले आदमियों से पूछता नहीं कि हिंदी सिनेमा में अनूठेपन का ऐसा ही इतिहास रचा जा रहा है तो भला ऐसा क्यों होता है कि किसी भी बड़े अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्मोत्सव की प्रतियोगिता श्रेणी में छोटे-छोटे मुल्कों का प्रतिनिधित्व तो रहता है लेकिन भारतीय फ़िल्मों को विरले ही चयन के क़ाबिल समझा जाता है? इसलिए नहीं कि भारतीय सिनेमा से अंतर्राष्ट्रीय फेस्टिवल्स का कोई तक़रारी संबंध है. नहीं. इसलिए कि सिनेमा के अंतर्राष्ट्रीय यथार्थ में भारतीय मुख्यधारा- या कोई भी धारा- कूलनेस को मैनिफैक्चर करने की अदाएं भले सीख गई हो, यथार्थ से सिनेमाई समीकरण कैसे बनाए, इसकी तमीज़ उसे अभी भी बनानी सीखनी है!
मगर ‘मेट्रो’ की बात करते हुए इतनी सारी पहले व पीछे की चर्चा क्यों? इसीलिए कि ढेरों समझदार बंधुगण- अख़बारों के अंदर व अख़बारों से बाहर घरों में चाय पीते हुए दोस्तों के बीच भी- अचानक फिर से अनुराग बसु के ‘मेट्रो’ पर बात करते हुए मुंबई के यथार्थ के डिपिक्शन की भावनात्मक, रोमानी अदाएं देते दिख रहे हैं..
आज इतना ही.. अनुराग बसु के ‘मेट्रो’ पर विस्तार से कल लौटेंगे.
बात खिंचती चली जाएगी और इन दो कौड़ी के कूल ड्यूड्स के साथ हम मुंबई के यथार्थ के किसी भी डिसेंट रिप्रेज़ेंटेशन तक नहीं पहुंचेंगे. क्योंकि कूलनेस के एक डेकोरेटिव ‘प्रेज़ेंटेशन’ से ज्यादा वास्तविकता का कोई तत्व उसमें है ही नहीं..
इन सवालों पर मीडिया की बौद्धिकता भी उतनी ही दो कौड़ी की है जितनी दो कौड़ी के अपने ये कूल ड्यूड्स.. और उनके सिरजनहार. एक फ़िल्म का प्रशंसात्मक कोरस खतम नहीं होता कि दूसरे की शान में दायें से बायें दुदुंभि बजने लगती है. ‘सरकार’ अनोखी, ‘ब्लैक’ गजब.. और पता नहीं क्या-क्या झंडिया चिपकती और तमगे बंटते रहते हैं! कोई इन भले आदमियों से पूछता नहीं कि हिंदी सिनेमा में अनूठेपन का ऐसा ही इतिहास रचा जा रहा है तो भला ऐसा क्यों होता है कि किसी भी बड़े अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्मोत्सव की प्रतियोगिता श्रेणी में छोटे-छोटे मुल्कों का प्रतिनिधित्व तो रहता है लेकिन भारतीय फ़िल्मों को विरले ही चयन के क़ाबिल समझा जाता है? इसलिए नहीं कि भारतीय सिनेमा से अंतर्राष्ट्रीय फेस्टिवल्स का कोई तक़रारी संबंध है. नहीं. इसलिए कि सिनेमा के अंतर्राष्ट्रीय यथार्थ में भारतीय मुख्यधारा- या कोई भी धारा- कूलनेस को मैनिफैक्चर करने की अदाएं भले सीख गई हो, यथार्थ से सिनेमाई समीकरण कैसे बनाए, इसकी तमीज़ उसे अभी भी बनानी सीखनी है!
मगर ‘मेट्रो’ की बात करते हुए इतनी सारी पहले व पीछे की चर्चा क्यों? इसीलिए कि ढेरों समझदार बंधुगण- अख़बारों के अंदर व अख़बारों से बाहर घरों में चाय पीते हुए दोस्तों के बीच भी- अचानक फिर से अनुराग बसु के ‘मेट्रो’ पर बात करते हुए मुंबई के यथार्थ के डिपिक्शन की भावनात्मक, रोमानी अदाएं देते दिख रहे हैं..
आज इतना ही.. अनुराग बसु के ‘मेट्रो’ पर विस्तार से कल लौटेंगे.
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