5/17/2007

गरीबी और भय के मेहनतनामे

सिलेमा में इन दिनों बड़ा सन्‍नाटा है. इसलिए नहीं है कि हमने फ़ि‍ल्‍में देखनी बंद कर दी हैं (भगवान न कराये ऐसा दिन आए! यह तो वही बात होगी कि हिंदीभाषी छोटे शहर के छोटे कवि को कह दिया जाए कि भइया, तुम कल से कविता पढ़ना बंद कर दो, और लिखना तो बंद कर ही दो! कैसी हदबद हालत हो जाएगी बिचारे की. तो हम इस उबलती गर्मी में अपनी हदबद हालत करवाना नहीं चाहते. हम फ़ि‍ल्‍म देख रहे हैं, और पहले से ज्‍यादा नहीं तो पहले से कम भी नहीं देख रहे..). दरअसल हमारे इस रेकॅर्ड को बजाने के पीछे की कहानी यह है कि एक साथी सिनेमाई ब्‍लॉगर ने आशंका ज़ाहिर की कि शायद अज़दक पर कथा और संस्‍मरण बांचने के चक्‍कर में हम सिनेमा भूल गए हैं. साथी, हम सिनेमा भूल जाएंगे तो फिर और क्‍या हमसे याद रखते बनेगा, इसका हमें ठीक-ठीक अंदाज़ा नहीं है. तो सिनेमा तो हम नहीं ही भूले हैं. बस दिक्‍कत सिर्फ़ यह है कि जो फ़ि‍ल्‍में हम देखते रहे हैं (आप कहेंगे कहां-कहां की अटरम-पटरम में हम दबे-धंसे रहते हैं!), उसके बारे में लगा नहीं कि बहुतों की दिलचस्‍पी बनेगी. उनपर हम कुछ लिखें तो शायद ज्ञानदत्‍त जी की प्रवीण लेखनी उसको अपने ज्ञानी ऐनक से जांचकर ‘गुरुवाई’ ठेलने का हमपर नया इल्‍ज़ाम मढ़ दे! क्‍या फ़ायदा ज्ञानी जी को, या किसी को भी दुखी करने का. और चूंकि चाहकर भी हम ‘गुड ब्‍वॉय बैड ब्‍वॉय’, ‘तारारमपम’ और ‘मेट्रो’ के मोह में उलझकर सिनेमा का रुख कर नहीं सके, सिलेमा में चुपाये रहना ही हमें सही नीति लगी.

काम की बताने लायक बात निकलेगी तो हम पाती लिखेंगे. फ़ि‍लहाल के लिए उन थोड़ी फ़ि‍ल्‍मों की फेहरिस्‍त जिनकी गंगा में डुबकी मारते हुए हम यह गर्मी झेलते रहे हैं:

1. द जैकेल ऑव नाहुयेलतोरो (मिगुएल ‍लितिन, चिले, 1969). लितिन का शुरुआती व बेहतरीन काम. डॉक्‍यूमेंट्री व फ़ीचर स्‍टाइल का एनर्जेटिक मिक्‍स. झारखंड, छत्‍तीसगढ़ व अन्‍य आदिवासी इलाकों में अगर कोई सार्थक, सामाजिक सिनेमाई आंदोलन होता तो यह फि‍ल्‍म वहां के लिए अच्‍छे उदाहरण का काम करती. भूखमरी में दर-दर की ठोकरें खा रहा फ़ि‍ल्‍म का नायक सहारा पाये एक परिवार की स्‍त्री और चार बच्‍चों की पीट-पीटकर इसलिए हत्‍या कर देता है क्‍योंकि रोज़ की यातना से उन्‍हें छुटकारा दिलाने की यही सूरत उसे दिखती व समझ आती है. उसकी गिरफ़्तारी पर मध्‍यवर्गीय समाज चीख-चीखकर उसे हत्‍यारा घोषित करता है. पुलिस जेल में उसके मानसिक ‘दिवालियेपन’ का सुधार करके उसे आदमी में बदलती है, और फिर जब वह सचमुच एक नए आदमी में तब्‍दील हो चुकता है, फांसी लगाके उसकी जान ले लेती है!
2. हाराकिरि (मसाकी कोबायासी, जापान, 1962). रोमांचक, लौमहर्षक, बड़े परदे पर देखा जानेवाला सनसनीखेज़ काला-सफ़ेद सिनेमा. सत्रहवीं शताब्‍दी के मध्‍य की गरीबी में समुराइ मुल्‍यों की निर्मम समीक्षा के बहाने समाजिक आस्‍थाओं की चीरफाड़.
3. वेजेस ऑव फीयर (हेनरी-जॉर्ज़ क्‍लूज़ो, फ्रांस, 1952). बेमिसाल, अद्भुत. क्‍लूज़ो ने ढेरों फ़ि‍ल्‍में नहीं बनाईं, मगर जितनी बनाईं वह थ्रिलर फ़ि‍ल्‍मों के तनाव को एक नई परिभाषा देती हैं. यह फ़ि‍ल्‍म उसका सर्वोत्‍तम उदाहरण है.
4. ला रप्‍चर (क्‍लॉद शाब्रोल, फ्रांस, 1970). हिचकॉकियन टेंशन का पैरिसियन इंटरप्रिटेशन. शाब्रोल के सिनेमा का अच्‍छा उदाहरण.
5. कार्ल गुस्‍ताव युंग: द मिस्‍ट्री ऑव द ड्रीम्‍स (डॉक्‍यूमेंट्री, घंटे-घंटे भर के तीन भागों में). जिनकी युंग और युंग के काम में दिलचस्‍पी है, उनकी खातिर अच्‍छी खुराक.

3 comments:

v9y said...

बहुतों की दिलचस्पी नहीं, मानता हूँ. और इसलिए ज़्यादा ज़ोर भी नहीं दूँगा. पर कभी कभार एकाध समरी वाली पोस्ट हो जाए तो बढ़िया है. जैसी ये है. कुछ ज़िक्र होता रहे, कुछ फ़िक्र होती रहे. नाम का ही सही, नाम को ही सही.

अपराजित said...

मान्यवर ,लोगों की रुची -अरुची का खयाल कर लिखना ही हो तो फिर कोई मसाले से गमकती हिंदी फिल्म ‍‍‍‍‍लिख डालिये, लछमी जी भी कुछ प्रसन्न हो जाएँ बाकी सरस्वती मईया तो मुग्ध हैं ही बारिश वाला संसमरण पढ़ के । सिलेमा का पाठक तो आपकी पसंद की फिल्मों के बारे में पढ़ना चाहता हैं ; उसे उसकी खुराक मिलनी ही चाहिये ।

azdak said...

तुरिया जी, कौन हैं आप.. आपका परिचय क्‍या है?.. नक़ाब से बाहर आइए..