5/24/2007
द हिचहाइकर्स गाइड टू द गैलेक्सी
साइंस फ़िक्शन के बारे में मैं उतना ही जानता हूं जितना करीना कपूर नॉम चॉम्स्की के बारे में जानती होंगी. डगलस एडम्स का नाम भर सुना था, ‘द हिचहाइकर्स गाइड टू द गैलेक्सी’ से उनके असोसियेशन की ख़बर नहीं थी. बहरहाल, इसे भी संयोग ही कहेंगे कि फ़िल्म हत्थे चढ़ी तो हमने सोचा एक नज़र मार लेते हैं. आख़िर कुछ तो बात होगी कि इतने समय से ‘हिचहाइकर्स..’ शीर्षक हवा में है. फ़िल्म ख़राब हुई तो दस मिनट बाद खेला खत्म करके सब भूल-भुला जाएंगे. तो भई, हमने फ़िल्म देखी. और दस मिनट नहीं पूरी देखी. और चुटीले संवादों और डिज़ाइन की जटिलता में रस लेकर देखी. डगलस एडम्स की निहायत लोकप्रिय किताब व सत्तर के दशक के मशहूर बीबीसी रेडियो शो पर आधारित फ़िल्म को एडम्स के फैन्स ने शायद बहुत पसंद नहीं किया, मगर हमने जो किताब पढ़ी नहीं और फ़िल्म को फ़िल्म की ही तरह देख रहे थे, सचमुच आनंदित हुए. गार्थ जेनिंग्स की यह पहली फ़िल्म (2005) है. और लहे तो एक नज़र मारने से आप भी मत चूकियेगा.
5/23/2007
यूगोस्लावियन अनमोल हीरा
अलेकसांद्र पेत्रोविच की 'आई इवन मेट हैप्पी जिप्सीस', 1967
अच्छी फ़िल्म क्या होती है? मुझे मालूम नहीं पारंपरिक समीक्षा इस सवाल पर क्या नज़रिया रखती है, मगर निजी तौर पर, मेरे लिए फ़िल्म- कहानी रेयरली होती है.. फ़िल्म देखते हुए अब ज्यादातर मैं फ़िल्म के प्याज की खोज में रहता हूं.. जितनी ज़्यादा फ़िल्म की बुनावट में परतें (लेयरिंग), उतना ही ज़्यादा व्यूइंग का आनंद! मतलब ये कि कहानी तो भइया, जो हो सो हो, देर-सबेर वह सामने आएगी ही, हमारी चिंता रहती है कि प्रोजेक्शन के शुरू होते ही बिम्बों व ध्वनियों की दुनिया कैसी खड़ी हो रही है.. फॉरग्राउंड में जो दिख रहा है, उसके पृष्ठ में क्या है, साउंड और इमेज़ की कटिंग कैसी हो रही है.. बैकग्राउंड स्कोर विज़ुअल्स को सिर्फ़ सपोर्ट कर रहा है, या एक दूसरे तल पर चलते हुए नैरेटिव को ज़्यादा गहरे अर्थ दे रहा है?
शायद फ़िल्म जैसे लोकप्रिय माध्यम में ये थोड़ी अभिजात किस्म की इच्छाओं, अपेक्षाओं का इम्पोज़िशन है. खरी उतरना तो दूर, ज़्यादातर फ़िल्में ऐसी अपेक्षाओं के आसपास भी नहीं फटकतीं. इस लिहाज़ से पिछले दिनों अपने पूर्ण अज्ञान में- मात्र जिज्ञासावश, निरे संयोग से- 1967 में बनी एक यूगोस्लावी फ़िल्म- ‘स्कूपलाजी पेरया’ (अंग्रेजी में ‘आई इवन मेट हैप्पी जिप्सीस’ देखना अच्छा रोमांचकारी अनुभव साबित हुआ. फ़िल्म देख चुकने के बाद हमने डायरेक्टर अलेकसांद्र पेत्रोविच और फ़िल्म की खोजबीन की तब पता चला वह 1967 में ऑस्कर की सर्वश्रेष्ट विदेशी फ़िल्मों वाले दौड़ में भी थी, और ज़िरी मेंज़ेल की ‘क्लोज़ली गार्डेड ट्रेन्स’ जैसी एक दूसरी अनोखी फ़िल्म की वजह से इनाम पाते-पाते रह गई (अलबत्ता कान में स्पेशल ज़ूरी अवार्ड से नवाजी गई).
दरअसल 1960 के यूगोस्लावी सिनेमा की नई धारा को खड़ा करनेवाले लोगों में ज़िवोइन पावलोविच और दुसान माकायेव के साथ-साथ अलेकसांद्र पेत्रोविच की मुख्य भूमिका रही. 1961 की बनी उनकी ‘दो’ ने नई धारा का रास्ता खोला, और 1965 की ‘तीन’, बताते हैं- ने उस आंदोलन की सशक्त अंतर्राष्ट्रीय पहचान बनवाई.
‘स्कूपलाजी पेरया’ पारंपरिक स्तर पर कोई व्यवस्थित कहानी नहीं कहती. कुछ चरित्रों के साथ घूमते हुए हमें आधुनिक, औद्योगिक समाज में जिप्सियों की अपनी जगह बनाने, तलाशने की विडंबनाओं का धीमे-धीमे एक मार्मिक कोलाज़ बनती चलती है. जिसमें समाज, जीवन, इतिहास, प्रेम, आधुनिकता सब आपस में इस तरह घुलेमिले हैं कि एक को दूसरे से अलग करके देखना लगभग असंभव-सा बना रहता है. निजी तौर पर मेरे लिए फ़िल्म का प्रभाव अभी तक इतना मार्मिक है (सोचिए, ऐसे लगता है जैसे फेल्लिनी, थियो आंगेलोपोलुस, इमिर कुस्तुरिका, ऑल्टमैन सबको एक साथ और खामख्वाह की किसी भी नाटकीयता से मुक्त, वास्तविकता के ज्यादा नज़दीकी में देख रहे हैं!) फ़िल्म व अलेकसांद्र पेत्रोविच पर थोड़ी और समझ के लिए यहां नज़र डालें.
अच्छी फ़िल्म क्या होती है? मुझे मालूम नहीं पारंपरिक समीक्षा इस सवाल पर क्या नज़रिया रखती है, मगर निजी तौर पर, मेरे लिए फ़िल्म- कहानी रेयरली होती है.. फ़िल्म देखते हुए अब ज्यादातर मैं फ़िल्म के प्याज की खोज में रहता हूं.. जितनी ज़्यादा फ़िल्म की बुनावट में परतें (लेयरिंग), उतना ही ज़्यादा व्यूइंग का आनंद! मतलब ये कि कहानी तो भइया, जो हो सो हो, देर-सबेर वह सामने आएगी ही, हमारी चिंता रहती है कि प्रोजेक्शन के शुरू होते ही बिम्बों व ध्वनियों की दुनिया कैसी खड़ी हो रही है.. फॉरग्राउंड में जो दिख रहा है, उसके पृष्ठ में क्या है, साउंड और इमेज़ की कटिंग कैसी हो रही है.. बैकग्राउंड स्कोर विज़ुअल्स को सिर्फ़ सपोर्ट कर रहा है, या एक दूसरे तल पर चलते हुए नैरेटिव को ज़्यादा गहरे अर्थ दे रहा है?
शायद फ़िल्म जैसे लोकप्रिय माध्यम में ये थोड़ी अभिजात किस्म की इच्छाओं, अपेक्षाओं का इम्पोज़िशन है. खरी उतरना तो दूर, ज़्यादातर फ़िल्में ऐसी अपेक्षाओं के आसपास भी नहीं फटकतीं. इस लिहाज़ से पिछले दिनों अपने पूर्ण अज्ञान में- मात्र जिज्ञासावश, निरे संयोग से- 1967 में बनी एक यूगोस्लावी फ़िल्म- ‘स्कूपलाजी पेरया’ (अंग्रेजी में ‘आई इवन मेट हैप्पी जिप्सीस’ देखना अच्छा रोमांचकारी अनुभव साबित हुआ. फ़िल्म देख चुकने के बाद हमने डायरेक्टर अलेकसांद्र पेत्रोविच और फ़िल्म की खोजबीन की तब पता चला वह 1967 में ऑस्कर की सर्वश्रेष्ट विदेशी फ़िल्मों वाले दौड़ में भी थी, और ज़िरी मेंज़ेल की ‘क्लोज़ली गार्डेड ट्रेन्स’ जैसी एक दूसरी अनोखी फ़िल्म की वजह से इनाम पाते-पाते रह गई (अलबत्ता कान में स्पेशल ज़ूरी अवार्ड से नवाजी गई).
दरअसल 1960 के यूगोस्लावी सिनेमा की नई धारा को खड़ा करनेवाले लोगों में ज़िवोइन पावलोविच और दुसान माकायेव के साथ-साथ अलेकसांद्र पेत्रोविच की मुख्य भूमिका रही. 1961 की बनी उनकी ‘दो’ ने नई धारा का रास्ता खोला, और 1965 की ‘तीन’, बताते हैं- ने उस आंदोलन की सशक्त अंतर्राष्ट्रीय पहचान बनवाई.
‘स्कूपलाजी पेरया’ पारंपरिक स्तर पर कोई व्यवस्थित कहानी नहीं कहती. कुछ चरित्रों के साथ घूमते हुए हमें आधुनिक, औद्योगिक समाज में जिप्सियों की अपनी जगह बनाने, तलाशने की विडंबनाओं का धीमे-धीमे एक मार्मिक कोलाज़ बनती चलती है. जिसमें समाज, जीवन, इतिहास, प्रेम, आधुनिकता सब आपस में इस तरह घुलेमिले हैं कि एक को दूसरे से अलग करके देखना लगभग असंभव-सा बना रहता है. निजी तौर पर मेरे लिए फ़िल्म का प्रभाव अभी तक इतना मार्मिक है (सोचिए, ऐसे लगता है जैसे फेल्लिनी, थियो आंगेलोपोलुस, इमिर कुस्तुरिका, ऑल्टमैन सबको एक साथ और खामख्वाह की किसी भी नाटकीयता से मुक्त, वास्तविकता के ज्यादा नज़दीकी में देख रहे हैं!) फ़िल्म व अलेकसांद्र पेत्रोविच पर थोड़ी और समझ के लिए यहां नज़र डालें.
5/17/2007
गरीबी और भय के मेहनतनामे
सिलेमा में इन दिनों बड़ा सन्नाटा है. इसलिए नहीं है कि हमने फ़िल्में देखनी बंद कर दी हैं (भगवान न कराये ऐसा दिन आए! यह तो वही बात होगी कि हिंदीभाषी छोटे शहर के छोटे कवि को कह दिया जाए कि भइया, तुम कल से कविता पढ़ना बंद कर दो, और लिखना तो बंद कर ही दो! कैसी हदबद हालत हो जाएगी बिचारे की. तो हम इस उबलती गर्मी में अपनी हदबद हालत करवाना नहीं चाहते. हम फ़िल्म देख रहे हैं, और पहले से ज्यादा नहीं तो पहले से कम भी नहीं देख रहे..). दरअसल हमारे इस रेकॅर्ड को बजाने के पीछे की कहानी यह है कि एक साथी सिनेमाई ब्लॉगर ने आशंका ज़ाहिर की कि शायद अज़दक पर कथा और संस्मरण बांचने के चक्कर में हम सिनेमा भूल गए हैं. साथी, हम सिनेमा भूल जाएंगे तो फिर और क्या हमसे याद रखते बनेगा, इसका हमें ठीक-ठीक अंदाज़ा नहीं है. तो सिनेमा तो हम नहीं ही भूले हैं. बस दिक्कत सिर्फ़ यह है कि जो फ़िल्में हम देखते रहे हैं (आप कहेंगे कहां-कहां की अटरम-पटरम में हम दबे-धंसे रहते हैं!), उसके बारे में लगा नहीं कि बहुतों की दिलचस्पी बनेगी. उनपर हम कुछ लिखें तो शायद ज्ञानदत्त जी की प्रवीण लेखनी उसको अपने ज्ञानी ऐनक से जांचकर ‘गुरुवाई’ ठेलने का हमपर नया इल्ज़ाम मढ़ दे! क्या फ़ायदा ज्ञानी जी को, या किसी को भी दुखी करने का. और चूंकि चाहकर भी हम ‘गुड ब्वॉय बैड ब्वॉय’, ‘तारारमपम’ और ‘मेट्रो’ के मोह में उलझकर सिनेमा का रुख कर नहीं सके, सिलेमा में चुपाये रहना ही हमें सही नीति लगी.
काम की बताने लायक बात निकलेगी तो हम पाती लिखेंगे. फ़िलहाल के लिए उन थोड़ी फ़िल्मों की फेहरिस्त जिनकी गंगा में डुबकी मारते हुए हम यह गर्मी झेलते रहे हैं:
1. द जैकेल ऑव नाहुयेलतोरो (मिगुएल लितिन, चिले, 1969). लितिन का शुरुआती व बेहतरीन काम. डॉक्यूमेंट्री व फ़ीचर स्टाइल का एनर्जेटिक मिक्स. झारखंड, छत्तीसगढ़ व अन्य आदिवासी इलाकों में अगर कोई सार्थक, सामाजिक सिनेमाई आंदोलन होता तो यह फिल्म वहां के लिए अच्छे उदाहरण का काम करती. भूखमरी में दर-दर की ठोकरें खा रहा फ़िल्म का नायक सहारा पाये एक परिवार की स्त्री और चार बच्चों की पीट-पीटकर इसलिए हत्या कर देता है क्योंकि रोज़ की यातना से उन्हें छुटकारा दिलाने की यही सूरत उसे दिखती व समझ आती है. उसकी गिरफ़्तारी पर मध्यवर्गीय समाज चीख-चीखकर उसे हत्यारा घोषित करता है. पुलिस जेल में उसके मानसिक ‘दिवालियेपन’ का सुधार करके उसे आदमी में बदलती है, और फिर जब वह सचमुच एक नए आदमी में तब्दील हो चुकता है, फांसी लगाके उसकी जान ले लेती है!
2. हाराकिरि (मसाकी कोबायासी, जापान, 1962). रोमांचक, लौमहर्षक, बड़े परदे पर देखा जानेवाला सनसनीखेज़ काला-सफ़ेद सिनेमा. सत्रहवीं शताब्दी के मध्य की गरीबी में समुराइ मुल्यों की निर्मम समीक्षा के बहाने समाजिक आस्थाओं की चीरफाड़.
3. वेजेस ऑव फीयर (हेनरी-जॉर्ज़ क्लूज़ो, फ्रांस, 1952). बेमिसाल, अद्भुत. क्लूज़ो ने ढेरों फ़िल्में नहीं बनाईं, मगर जितनी बनाईं वह थ्रिलर फ़िल्मों के तनाव को एक नई परिभाषा देती हैं. यह फ़िल्म उसका सर्वोत्तम उदाहरण है.
4. ला रप्चर (क्लॉद शाब्रोल, फ्रांस, 1970). हिचकॉकियन टेंशन का पैरिसियन इंटरप्रिटेशन. शाब्रोल के सिनेमा का अच्छा उदाहरण.
5. कार्ल गुस्ताव युंग: द मिस्ट्री ऑव द ड्रीम्स (डॉक्यूमेंट्री, घंटे-घंटे भर के तीन भागों में). जिनकी युंग और युंग के काम में दिलचस्पी है, उनकी खातिर अच्छी खुराक.
काम की बताने लायक बात निकलेगी तो हम पाती लिखेंगे. फ़िलहाल के लिए उन थोड़ी फ़िल्मों की फेहरिस्त जिनकी गंगा में डुबकी मारते हुए हम यह गर्मी झेलते रहे हैं:
1. द जैकेल ऑव नाहुयेलतोरो (मिगुएल लितिन, चिले, 1969). लितिन का शुरुआती व बेहतरीन काम. डॉक्यूमेंट्री व फ़ीचर स्टाइल का एनर्जेटिक मिक्स. झारखंड, छत्तीसगढ़ व अन्य आदिवासी इलाकों में अगर कोई सार्थक, सामाजिक सिनेमाई आंदोलन होता तो यह फिल्म वहां के लिए अच्छे उदाहरण का काम करती. भूखमरी में दर-दर की ठोकरें खा रहा फ़िल्म का नायक सहारा पाये एक परिवार की स्त्री और चार बच्चों की पीट-पीटकर इसलिए हत्या कर देता है क्योंकि रोज़ की यातना से उन्हें छुटकारा दिलाने की यही सूरत उसे दिखती व समझ आती है. उसकी गिरफ़्तारी पर मध्यवर्गीय समाज चीख-चीखकर उसे हत्यारा घोषित करता है. पुलिस जेल में उसके मानसिक ‘दिवालियेपन’ का सुधार करके उसे आदमी में बदलती है, और फिर जब वह सचमुच एक नए आदमी में तब्दील हो चुकता है, फांसी लगाके उसकी जान ले लेती है!
2. हाराकिरि (मसाकी कोबायासी, जापान, 1962). रोमांचक, लौमहर्षक, बड़े परदे पर देखा जानेवाला सनसनीखेज़ काला-सफ़ेद सिनेमा. सत्रहवीं शताब्दी के मध्य की गरीबी में समुराइ मुल्यों की निर्मम समीक्षा के बहाने समाजिक आस्थाओं की चीरफाड़.
3. वेजेस ऑव फीयर (हेनरी-जॉर्ज़ क्लूज़ो, फ्रांस, 1952). बेमिसाल, अद्भुत. क्लूज़ो ने ढेरों फ़िल्में नहीं बनाईं, मगर जितनी बनाईं वह थ्रिलर फ़िल्मों के तनाव को एक नई परिभाषा देती हैं. यह फ़िल्म उसका सर्वोत्तम उदाहरण है.
4. ला रप्चर (क्लॉद शाब्रोल, फ्रांस, 1970). हिचकॉकियन टेंशन का पैरिसियन इंटरप्रिटेशन. शाब्रोल के सिनेमा का अच्छा उदाहरण.
5. कार्ल गुस्ताव युंग: द मिस्ट्री ऑव द ड्रीम्स (डॉक्यूमेंट्री, घंटे-घंटे भर के तीन भागों में). जिनकी युंग और युंग के काम में दिलचस्पी है, उनकी खातिर अच्छी खुराक.
Subscribe to:
Posts (Atom)