4/03/2009

फ़ि‍ल्‍में देखीं..



थाइलैण्‍ड के आदित्‍य अस्‍सारात की पहली- वंडरफुल टाउन, चेक यान रेबेक की पेलिस्‍की, फ्रेंच ज़ाक ऑदियार की द बीट दैट स्किप्‍ड माई हार्ट और दक्षिण कोरिया के सांगसू इम की द गुड लॉयर्स वाइफ़.. जोड़े गये लिंक से फ़ि‍ल्‍मों की एक बेसिक रिव्‍यू पर नज़र जायेगी..

तीन का एक: फिर एक बार हिंदी फ़ि‍ल्‍में..

हिंदी फ़ि‍ल्‍मों पर लिखना, लिखते रहना सचमुच कलेजे का काम है. ऐसा नहीं है कि हिंदी साहित्‍य पर लिखना कलेजे का काम नहीं है, लेकिन साहित्‍य के साथ सहूलियत है कि आप किताब बंद कर देते हैं चिरकुटई ओझल हो जाती है, जबकि हिंदी फ़ि‍ल्‍मों की रंगीनियां आपका पीछा नहीं छोड़तीं, बस के पिछाड़े से लेकर बाथरुम के आड़े तक ‘मसक अली, मसक अली!’ की मटक का सुरबहार तना रहता है. बार-बार याद कराता कि अभीतक हमको नहीं देखे? जन्‍म फिर ऐसे ही सकारथ कर रहे हो? आप अस्तित्‍ववादी चिंताओं में घबराकर ‘दिल्‍ली 6’ की ज़द में घुस ही गये तो फिर दूसरी वैचारिक घबराहटें शुरू हो जाती हैं. पहली तो यही कि हिंदी फ़ि‍ल्‍मों का निर्देशन करनेवाले ये प्रतिभा-पलीता किस देश के कैसे प्राणी हैं? और जैसे भी प्राणी हैं भक्ति व श्रद्धा में भले इनका रंग निखरता हो, फ़ि‍ल्‍म बनाने का करकट करतब किस भटके डॉक्‍टर ने इन्‍हें प्रीसक्राइब किया है? माने अभी ज्यादा वक़्त नहीं हुआ आपने ‘रंग दे बसंती’ के तरबूज के फांक काटे थे, और इतनी कर्कटता से अब तरबूज की तरकारी (या ‘दिल्‍ली 6’) परस रहे हैं? कहां गड़बड़ी कहां है, भाईजान? काम की कंसिंस्‍टेंसी कोई चीज़ होती है? कि स्‍टील की फैक्‍टरी में आप प्‍लास्टिक की चप्‍पल मैनुफैक्‍चर कर आते हैं? और बाहर आकर दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए मुस्‍कराते भी रहते हैं कि इट्स अ ट्रिब्‍यूट टू माई सिटी! इज़ दिज़ सम ट्रिब्‍यूट, मिस्‍टर मेहरा, ऑर हाथी की लीद? इट्स रियली नॉट फ़नी!

माने सचमुच यह दार्शनिक प्रश्‍न होगा कि आप किस एंगल से ‘दिल्‍ली 6’ को एक फ़ि‍ल्‍म मानें. माने इसलिए मानें कि फ़ि‍ल्‍म में बहुत सारे एक्‍टर हैं और वो बहुत सारी बकबक करते हैं और किसी घटिया वाईड एंगल वीडियो की तर्ज़ पर रामलीला जैसा कुछ जाने कितने जन्‍मों तक चलता रहता है? मैंने काफी समझा-बुझाकर खुद को तैयार किया था कि कम से कम मिस्‍टर जूनियर बच्‍चन को अमरीका से लौटा हुआ मान लूं, मगर इतनी रियायत भी मन पचा ले लगता है अभिषेक बाबा इतने पर के लिए भी तैयार नहीं थे. अमरीका से नहीं प्रतापगढ़ के किसी टैक्‍सी यूनियन के सेक्रेटरी के छुटके भइय्या रौशन ख़ानदान हैं पूरे वक्त इसीकी प्रतीति होती रही! कास्टिंग के बारे में सचमुच क्‍या कहा जाये, फ़ि‍ल्‍म की इकलौती अच्‍छी बात ‘मसक अली’ वाले गाने को देखते समय लगता है कबूतर की कास्टिंग सही हुई है. दिल्‍ली और चांदनी चौक लगता है मुमताज़ के 'दुश्‍मन' के ‘देखो, देखो, देखो, बाइस्‍कोप देखो’ से इंस्‍पायर होकर डायरेक्‍टर साहब कैप्‍चर कर रहे थे.

अबे, सचमुच कोई हिंदी फ़ि‍ल्‍म क्‍यों देखे? मगर यह फिर वही बात हुई कि कोई हिंदी में किताबें क्‍यों पढ़े. आदमी अकेलेपन से घबराकर जैसे शादी कर लेता है, मैं हिंदी की किताब एक ओर हटाकर हिंदी फ़ि‍ल्‍म देखने चला जाता हूं! इसी तरह के मानसिक भटकाव में ‘गुलाल’ देखने चला गया होऊंगा. फ़ि‍ल्‍म के दस मिनट नहीं बीते होंगे, ख़ून खौलानेवाली बहुत सारी बड़ी-बड़ी बातें होने लगीं, मैं भी खौलता हुआ वयस्‍क दर्शक बनने की भूमिका बनाने लगा. मगर फिर बहुत जल्‍दी थियेट्रिकल गानों की थियेट्रिकल अदाओं से ऊब इस समझ पर भी आकर आराम करने लगा कि फलां जगह घुसा देंगे, डंडा कर देंगे की महीन बुनावट वाली ये दुनिया हमें पारंपरिक हिंदी सिनेमा से अलग दुनिया देखने के क्‍या नये मुहावरे दे रही है, सचमुच दे रही है?देव डी’ पर बड़े सारे भाई और बच्‍च लोग गिर-गिरके बिछते और बिछ-बिछके गिरते रहे मगर वह टुकड़ा-टुकड़ा दिल की कौन नयी दुनिया खोल रही थी? या ड्रग्‍स, सैक्‍स, वॉयलेंस का एक ज़रा सा हटके वही पुराना कॉकटेल ठेल रही थी? कुछ लोग मेरे कहे से संभवत: नाराज़ हो जायें, कि मैं फ़ेयर नहीं कह रहा एटसेट्रा मगर माफ़ कीजिये, दोस्‍तो, मेरे पास इस सिनेमा के लिए ‘सिनेमा ऑफ़ डिसपेयर’ से अलग और कोई नाम नहीं सूझता. एंड इन माई अर्नेस्‍ट सिंसीयरिटी आई जेनुइनली क्‍वेश्‍चन ऑल दोज़ फ़ि‍ल्‍म एंथुसियास्‍ट्स हू आर गोइंग गागा ओवर गुलाल..

गुलाल से निकलकर ‘बारह आना’ लोक में गया, और सच कहूं फ्लैट, इकहरा डायरेक्‍शन, खराब ऐक्‍टरों व निहायत सिरखाऊ बैकग्राउंड स्‍कोर के बावज़ूद फ़ि‍ल्‍म देखने का मलाल नहीं हुआ. आसान रास्‍तों की सहूलियत से मुक्‍त, नेकनीयती और मुश्किल स्क्रिप्‍ट धीरे-धीरे अपने को संभाले ठीक-ठाक निकल जाती है. गुलाल की बजाय बारह आना वाली दुनिया में होना ज़्यादा अर्थपूर्ण लगता है.

2/14/2009

परी.. पैरिस.. पेशानियां..



Paris.. Snippets of life, characters coming into each-other, going up and down.. a really, nice innocent cinematic trip.. three cheers for director Cédric Klapisch..

2/11/2009

देव डी, अनुराग, डैनी बॉयल और हमारा समय इत्‍यादि..

बॉलीवुड की ऐसी दुनिया में जो विश्‍व सिनेमा के बरक्स अभी तक अपना ककहरा भी ढंग से दुरुस्‍त नहीं कर पायी है, अनुराग में ढेरों खूबियां हैं. अपनी और अपनी से ज़रा ऊपर की पीढ़ी के बाकी सेनानायकों के उन नक़्शेकदमों- जिनमें लोग किसी अच्‍छी-खराब कैसी भी शुरुआत के बाद सिर्फ़ और सिर्फ़ बड़ी फ़ि‍ल्‍में, और बड़े स्‍टारों का रूख करते हैं- से निहायत अलग अनुराग का अभी तक का ग्राफ़ परिचित बंबइया मुहावरों से बाहर के एक्‍टरों को इकट्ठा करके अपने ढंग की फ़ि‍ल्‍म बनाना रहा है. ‘नो स्‍मोकिंग’ जैसी फ़ि‍ल्‍म में उसका सुर बिगड़ भले गया हो, अनुराग की बुनावट की कंसिस्‍टेंसी अपनी उन्‍हीं पहचानी बारोक रास्‍तों पर चलती दिखती है. बॉलीवुड की बंधी-बंधायी इस अटरम-खटरम राग में अनुराग ने एक और दिलचस्‍प और नये एलीमेंट का जो इज़ाफा किया है वह बंधे-बंधाये लोकेशनों से बाहर फ़ि‍ल्‍म के एक्‍चुअल शूट को बाहरी वास्‍तविक संसार की खुली बीहड़ता में ले जाकर एकदम से बेलौस तरीके से फैला देना है, और इस लिहाज से अनुराग मणि रत्‍नम की ‘सजायी’ और डैनी बॉयल की ‘स्‍लमडॉग मिलिनेयर’ की ‘बुनाई’ सबसे चार कदम आगे चलते हैं. आज के बॉलीवुडीय वास्‍तविकता के मद्देनज़र अनुराग की इन अदाओं में ऐसा ‘इलान’ है कि तबीयत होती है जाकर बच्‍चे का कंधा ठोंक आयें. वाकई यह बड़ा अचीवमेंट है. फिर? अनुराग में यह प्रतिभा भी है कि छोटे-छोटे सिनेमाई क्षणों में कैज़ुअल तरीके से खूब सारे डिटेल्‍स पिरो लें, और ऐसा नहीं कि फिर वहां अपनी मोहिनी पर इतराते अटके रहें, बिंदास तरीके से आगे निकल जायें, तो इतने सारे तो हाई पीक्‍स हैं अनुराग की सिनेमायी संगत में, फिर भी कल ‘देव डी’ देखी और दिल एकदम टूट सा गया! क्‍यों टूटा में इंडल्‍ज नहीं करूंगा, यह अनुराग नहीं समाज के फलक के बड़े सवाल हैं इनके बारे में चंद बातें करूंगा, अकल में और चीज़ें घुसीं तो उनकी चर्चा आगे फिर होती रहेगी..

तक़लीफ़ के एकांतिक क्षणों में व्‍यक्ति की वल्‍नरेबिलिटी के कुछ बड़े प्‍यारे मोमेंट्स हैं ‘देव डी’ में- कोमल, एक अकेले पत्‍ते की तरह लरज़ता, कांपता व्‍यक्ति. लेकिन प्रेम और सांसारिक अनुभव की इतनी भर गरिमा की अंडरस्‍टैंडिंग के बाद देव डी आगे कहीं नहीं जाती, सीधे यहीं बैठ जाती है. मैंने गिनती गिनना (या कायदे से उनको सुनना, समझना भी) भी बंद कर दिया था, लेकिन समीक्षक बताते हैं फ़ि‍ल्‍म में अट्ठारह गानों को बखूबी कहानी के तार में पिरोया गया है, अभय देओल ही नहीं, कल्‍की, माही सबके बड़े उम्‍दा परफ़ारमेंसेस हैं, एक हिंस्‍त्र किस्‍म की एनर्जी फ़ि‍ल्‍म की शुरुआत से लेकर आखिर तक बनी रहती है, लेकिन फ़ि‍ल्‍म में आप किसी सामूहिक मानवीयता का कोई गाना सुनने की उम्‍मीद पाले बैठे हों, तो जाने क्‍यों मन एकदम खाली-खाली सा महसूस करने लगता है, फ़ि‍ल्‍म तेजी से ऊब पैदा करना शुरू करती है, मानो कोई बड़ा विहंगम बारॉक कैनवस अचानक आंखों के आगे खुल गया हो, लेकिन उसकी कोई आत्‍मा न हो!

मगर उदासियों और नयी सम्‍भावनाओं का ककहरा बांचने में लगे बच्‍चों को फ़ि‍ल्‍म जंच रही है, इतनी जल्‍दी एक छोटे-से बड़े संसार में ‘इमोशनल अत्‍याचार’ एक बड़े अरबन मुहावरे की शक्‍ल में हिट हो गया है तो हम भी सोच में पड़े हैं, कि गुरु, चक्‍कर क्‍या है. पार्टनर, गिरे क्‍यों पड़ रहे हैं, लोग? अभी चंद महीनों पहले हमने ‘ओये लकी..’ के दिबाकर को शाबासीमाल पहनाया था, मज़े की बात वहां भी अभय थे, पतित नायक का नायकत्‍व था, लेकिन ओह, कैसी तो उदात्‍तता थी, एक मानवीय डिग्निटी थी दिबाकर की फ़ि‍ल्‍म में, चरित्रों की तक़लीफ़ में आपका मन फड़फड़ाता रहता है, देव डी में कभी आपकी आत्‍मा में ऐसे तीर नहीं धंसते, फिर भी फ़ि‍ल्‍म ने एक बड़े शहरी समुदाय का स्‍नेह फंसा रखा है (और वह सैक्‍स की वज़ह से है ऐसा मैं नहीं मानता), क्‍यों?..

शायद यह ऐसे ही नहीं हो गया है कि ‘देव डी’, और बड़े अर्थों में ‘स्‍लमडॉग मिलिनेयर’ भी, एक बड़े शहरी समुदाय के मन को भा रही है. ‘स्‍लमडॉग..’ तो भारतीय यथार्थ का एक क्रूड ऐसा पिक्‍चर पोस्‍टकार्ड है जो खास फिरंगी कंस्‍पंशन के लिए तैयार किया गया है, फिर यह यहां की इंडियन क्राउड को क्‍यों रास आ रहा है? शायद इसीलिए रास आ रहा है कि हमारे देखते-देखते यहां भी बड़े शहरों में एक ऐसी आबादी बड़ी हो गयी है जो अपने आसपास के यथार्थ को उन्‍हीं चश्‍मों से देखती है जिन चश्‍मों से कोई फिरंगी आंख हमारे समाज को देखेगी? थोड़ा पहले तक हक़ीकत यह थी ‘लगान’ के हाइजेनिक गांव इस शहरी तबके के मन में गांव की वास्‍तविकता का परिचायक थे, उसके बाद ‘रंग दे बसंती’ के म्‍यूजिकल फ्लाईट में इसने देशभक्ति का थोथा सबक पा लिया, अब यह अपने समाज को अपनी आंखों पहचानने, पहचान पाने की बनिस्‍बत डैनी बॉयल के स्‍केची, एक्‍सप्‍लॉयटेटिव ‘स्‍लमडॉग..’ की मार्फ़त पहचान लेने की सहूलियत में सुखी होती है. फ़ि‍ल्‍म और समाज दोनों ही के लिए यह शुभ संकेत नहीं है, बाह्य सामाजिक यथार्थ के वास्‍तविक रेशों से कटे, चरम सेल्‍फ़ इंडलजेंस के ये नये मेनीफ़ेस्‍टों हैं. ‘स्‍लमडॉग..’ के साथ यहा ‘देव डी’ की याद महज इस संयोग के लिए नहीं कर रहा हूं कि फिल्‍म में डैनी बॉयल के आभार का एक क्रेडिट टाइटल है, नहीं, देव डी भी अपनी समूची एनर्जी में चीख-चीखकर उसी सेल्‍फ़ इंडलजेंस का बड़ा घोषणापत्र बनाती रहती है जिसमें भयानक सोशल डिसकनेक्‍ट है, सिर्फ़ मैं है मैं है, सामाजिक रेफ़रेंसेस महज बैकग्राउंड डिटेल्‍स हैं (स्क्रिप्‍ट व फिल्‍म में यह गूंथ लेना अनायास ही नहीं रहा होगा कि देव नशे की हालत में अपनी कार से सात लोगों को कुचलता उनकी मौत का कारण बनता है, दर्शकों के लिए यह कहीं कंसर्न व टेंशन का विषय बनने की मांग नहीं करता!), समाज नहीं है. ऐसा सिनेमा अत्‍याचारी गानों का जश्‍नगाह भले बन जाये, भारतीय सिनेमा को कहीं ले जानेवाला सुरीला गान तो क्‍या बनेगा. एन एक्‍स्‍ट्रीमली सैड फेनोमेनन..