पिछले चौबीस घंटों में एक के बाद एक तीन फिल्में देखीं. घर पर तमिल देखी, सिनेमा में जाकर पहले मलयालम, और उसके पीठ पीछे, मराठी देखी. बहुत दिनों बाद ऐसा पागलपन किया, अपने यहां की फिल्मों के साथ आठ और नौ घंटे गुज़ारना मज़ाक नहीं है. मगर फिर माथे में आखिरी फिल्म का ऐसा जायका बना रहा कि अपनी पहले की दाेेनों गलतियां भूल गईं.
सैराट में यह अपनी ज़रा-ज़रा-सी की मामूली सोलह-साला हिरोईन है, चेहरे और देह में हिरोईन वाला पाव भर का मटिरियल नहीं. थोड़ी थुलथुल, सांवली है, नैन-नक्श भी ऐसे नहीं कि ऊपरवाले की बहुत कल्पना और मेहरबानी दर्शाते हों, मगर कुछ निर्देशक मंजुले की लिखाई का धन है, और कुछ भली लड़की के अपने अरमानों की मार्मिकता, होनहार क्या ऊंची पतंग उड़ाती है अपने किरदार के साथ, देखकर जी सच्ची लाजवाब हो गया. अपने यहां लड़कियों को ऐसे देख लेने की भेदकारी और भारी नज़र सचमुच विरल है.
प्रेम में ढेर हुए के डायलॉग बहुत सारी एक्ट्रेसेस के हाथ में धर दो, अच्छे से पढ़ देंगी, मगर जिस तरह से यह लड़की, रिंकु राजगुरु, उसे परदे पर जीती, एक्ट-आउट करती है, कि बड़े घर की बेटी हूं, ऐंठ में रहकर ही जीना सीखा है, लेकिन इस प्रेम में कैसी खुद से हारी हो गई हूं, और इस बदकार ने कैसे मेरी आत्मा में ऊष्मा का ताप और आग भर दिया है, और उस प्रेम के पीछे अपनी दुनिया फूंककर, सच्चाई से रुबरु होती, फिर कैसे खुद से भी परायी हुई जाऊंगी, सब जीती है यह ज़रा सी फुदनी लड़की, और क्या धमक और इलान से जीती है.
दसेक दिनों से फिल्म जाने देखना टाल रहा था. ट्रेलर में दिखी लाल, पीले, नीले कपड़ों में सजी कुछ चिरकुट-सी दिखती यह हिरोईन भी एक वज़ह रही होगी कि फिल्म के लिए निकलते-निकलते निकलना स्थगित हो रहा था. उन्हीं लाल, पीले, नीले सलवार-कुर्तों वाले 'सूट' में यह एंटी-छप्पन छूरी रहते-रहते रॉयल एन्फििल्ड की सवारी करके कॉलेज पहुंच जाती है. कॉलेज ग्राउंड में लड़कियों के साथ खेल में बझी लड़के की नज़रों को अपने में अटका पाकर सधे कदमों से जवाब तलब करने पहुंच जाती है, 'तू क्या देख रहा है रे?' लड़का हकलाता जवाब देता है कि वह खेल देख रहा था. लड़की तमककर- 'मैं देख नहीं रही तू क्या देख रहा है?' और फिर उतने ही कैजुअलनेस से कहना, 'मैंने ये नहीं कहा तू देख रहा है मुझे पसंद नहीं!' और पलटकर निकल जातना..
ट्रैक्टर पर सवार लड़के की झोपड़ दुनिया में पहुंच जाती है, झोपड़े के बाहर बर्तन धोती 'संभावित' सास और तेरह-साला ननद के हाल-चाल लेती, मूलत: खुलेआम अपने दिल के लुटेरे को न्यौतने गई है, कि आकर उसकी संगत में उसके खेत टहल ले. यह जानते हुए कि घर पर किसी को खबर हुई, गुडा किस्म के भाई या रौबीले तबीयत के पाल्टिकल बाप के तो दोनों के लिए कितना खतरा होगा, फिर भी लड़की चार हाथ आगे निकलकर यह सब करती है, क्यों करती है? इसलिए कि प्रेम के हाथों बेसहारा हुई जाती है. वही बेसहारापन, अपने प्रेमी, और उसकी गरीबी की संगत में, उसकेे अमीर गुरुर के छाती पर सांप-सा लोटता उसे अब दूसरे छोर पर पराया और बेसहारा करके तोड़ता है तो लड़की उस टूट को भी उसी मार्मिकता से जीती है.
इन मार्मिकताओं को एक्सप्रेस करनेवाले गाने भी कुछ उसी चाल में दौड़ते हैं. और दुनिया, लगभग, मन के थापों के अनुरुप ढलती चलती है, इसे सिनेमा में इस सहजभाव हासिल कर लेना आसान नहीं है.
फिल्म में दसेक मिनट होंगे, मारा-मारी और लाचारी के कुछ मेनस्ट्रीम सिनेमाई लटके-झटके, बाकी खालिस सोना है. नागराज पोपटराव मंजुलेे की पहली, 'फंड्री' कहीं कोने में चुपचाप तैयार की गई, एक छोटी कलाकारी थी, 'सैराट' मेनस्ट्रीम के बीच मैदान में बजाया गया बड़ा वाला बाजा है, और बड़े अच्छे से बजाया गया है. मराठी लोग तो बढ़-बढ़कर देख ही रहे हैं, आप भी देख आइए.
10 comments:
dekh aaun kya?
अब तो जाना ही पडेगा.....टुटे पैर के ही साथ.
Many thanks.
N.
Nice sir !!!!!
बढ़िया बजाया, बाजा।
जी।
यहां तो लगी नहीं है. इंतजार करें कि टोरेंट में ढूढें?
मराठी समझ आती हो तो टोरेंट बुरा आइडिया नहीं, नहीं आती तो गड़बड़ है, इस तरह गड़बड़ है कि अभी सबटाईटल किसी ने बनाये नहीं.
फ़िल्म के बारे में एक से एक लेख पढ़ लिए इस लेख सहित पर मराठी नहीं आने से फ़िल्म देखने से वंचित हूँ।
फिल्मकार 'नागराज मंजुले' की कविताओं का हिन्दी में अनुवाद.
_____________________________________________________________
धूप की साज़िश के खिलाफ़
इस सनातन
बेवफ़ा धूप
से घबराकर
क्यों हो जाती हो तुम
एक सुरक्षित खिड़की की
सुशोभित बोन्साई!
और
बेबसी से... मांगती हो छाया.
इस अनैतिक संस्कृति में
नैतिक होने की हठ की खातिर......
क्यों दे रही हो
एक आकाशमयी
मनस्वी विस्तार को
पूर्ण विराम...
तुम क्यों
खिल नहीं जाती
आवेश से
गुलमोहर की तरह.....
धूप की साज़िश के ख़िलाफ़.
______________________________________
दोस्त
एक ही स्वभाव के
हम दो दोस्त
एक दुसरे के अजीज़
एक ही ध्येय
एक ही स्वप्न लेकर जीने वाले
कालांतर में
उसने आत्महत्या की
और मैंने कविता लिखी.
______________________________________
मेरे हाथो में न होती लेखनी
मेरे हाथो में न होती लेखनी
तो....
तो होती छीनी
सितार...बांसुरी
या फ़िर कूंची
मैं किसी भी ज़रिये
उलीच रहा होता
मन के भीतर का
लबालब कोलाहल.
--------------------------------------------
‘क’ और ‘ख’
क.
इश्तिहार में देने के लिए
खो गये व्यक्ति की
घर पर
नहीं होती
एक भी ढंग की तस्वीर.
ख.
जिनकी
घर पर
एक भी
ढंग की तस्वीर नहीं होती
ऐसे ही लोग
अक्सर खो जाते हैं.
_____________________________________
जनगणना के लिए
जनगणना के लिए
‘स्त्री / पुरुष’
ऐसे वर्गीकरण युक्त
कागज़ लेकर
हम
घूमते रहे गाँव भर
और गाँव के एक
असामान्य से मोड़ पर
मिला चार हिजड़ो का
एक घर.
______________________________________
कवि : नागराज मंजुले
अनुवाद : कवि टीकम शेखावत, पुणे (tikamhr@gmail.com , 97654040985 )
Post a Comment