5/26/2016

कुछ फिल्‍में क्‍यों अच्‍छी लगती हैं?

लगभग, अच्‍छे संगीत की ही तरह, यह ऐसी चीज़ है जिसे आम तौर पर बोल कर बताया नहीं जा सकता. (बोलने वाले बहुत-बहुत कुछ बोलते ही रहते हैं, मगर इन पंक्तियों के लिखनेवाले को हमेशा लगता है टाकिंग अबाउट द एक्‍सपीरियंस इस नॉट द एक्‍सपीरियंस. इट्स समथिंग रियली सबलाइम.) वही पहचानी दुनिया एकदम नए ढंग में आपके सामने खुलती, और आपको चमत्‍कृत करती है. उन्‍हीं पहचाने रंगों में एकदम अनएक्‍सपेक्‍टेड से सामना करने जैसा एक्‍सपीरियेंस.

द फिल्‍म यू सी इज़ नॉट द फिल्‍म आई सी, एंड फनीली, वी आर वाचिंग इट टुगेदर. सिनेमा हॉल में बैठे हुए सैकड़ों लोग एक ही फिल्‍म में बहुत सारी फिल्‍में देख रहे हैं. और बहुत बार, निर्देशक की अपेक्षाओं के परे भी देख रहे हैं. देखते हुए एक बार दिखता है, मगर वह 'दीखना' बाद में धीरे-धीरे, और काफी समय तक, खुलता रहता है. मन में उसकी एक स्‍वतंत्र दुनिया बन जाती है, और रहते-रहते, बाज मर्तबा आपके अजाने भी, आपकी उससे एक गुफ़्तगू चलती रहती है.

एक दूसरी मज़ेदार बात, वह ख़ास चाक्षुस, सिनेमैटिक एक्‍सपीरियंस, शब्‍दों में व्‍यक्‍त करना, कर पाना, ऑलमोस्‍ट 'असंभव' जान पड़ता है. खेल में तनाव का एक ख़ास क्षण, या प्रेम में सुख, या तक़लीफ़, या सांगीतिक अनुभूति की तरल विरलता पर देर तक कोई बातें करता रह सकता है, मगर ठीक-ठीक उसका कहा जाना फिर भी रह ही जाता है.

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