कभी इटली में कुछ समय गुज़रा था, तो रह-रहकर वहां की फिल्मों में झांक आने का मोह स्वाभाविक है. कभी-कभी कुछ अच्छा हाथ चढ़ता भी है, लेकिन मोस्टली, ऐसे सिरजनहारे दिखते हैं कि दिल फांक-फांक हो जाता है. अभी एक, दो और तीन दिखे ये.. दिक्कत क्या है? पाओलो विर्जी की इटली में साख है, काफी सारे पुरस्कार मिलते रहे हैं, फिल्में दर्शकों में सराही जाती रही हैं, समीक्षकों का भी भाव मिलता रहा है, तो फिर..? वह पाओलो की ही नहीं, थोड़ा डिटैच होकर सोचने पर पूरे इटैलियन सिनेमा की दिक्कत लगती है. कि इतिहास, संवेदना, मन की उछाल, सबकुछ जैसे देश और समय की इतनी लकीरें खींच दी गई हों, उस समय-स्थान के खिंचे हुए दड़बे में बंद हो. कोई वृहत्तर विकलता, उक्षृंखलता उसे हवा में उछालकर पूरी दुनिया का होने से रोके रखती हो. मालूम नहीं, दुनिया भर में फिल्में स्थान-बद्ध होती हैं, अंग्रेजी में जिसे हम रूटेड कहते हैं, और जो हिन्दी सिनेमा का सबसे बड़ा दोष है कि वह स्वित्ज़रलैंड घूम आती है, छत्तीसगढ़िया गाना आती है, सब कहीं फैली होती है मगर उसके किरदार, और न फिल्म, कहीं रूटेड होती है. तो स्थान-बद्धता तो अच्छा और फ़ायदे की चीज़ होनी चाहिए, मगर इटैलियन सिनेमा के लिए वह रेत में कुछ मुंह छुपाये की कला होकर रह गई है. पिछले बीस वर्षों से तो बहुत कुछ यही दुनिया देख रहा हूं.
जबकि थोड़े कम बजट और कम कमाई वाले अभिनेताओं की बुनावट की छोटी अमरीकी फिल्में कुछ इन्हीं गुणों की वजह से बार-बार दिखता रहा है कि कुछ स्पेशल एंटरटेनमेंट में बदलती रहती हैं. अभी हाल की देखी कुछ ऐसों की गिनती गिनाता हूं, इनमें से किसी फिल्म के पास बहुत पैसा नहीं था, कुछ लोग और कुछ जरा-सी स्थितियों की बतकहियां थीं, मगर ज़रा-सी स्थितियों की बतकहियों को गढ़ने का यह विशिष्ट अमरीकी सिनेमाई कौशल ओवरव्हेल्मिंगली इम्प्रेस करता रहता है. फंडामेंटल्स ऑफ केयरिंग, एडल्ट वर्ल्ड, द आर्ट ऑफ गेटिंग बाइ, स्टक इन लव सारी ऐसी फिल्में हैं जिसमें लोग सिर उठाकर ठीक से जीवन कैसे जियें की कला सीखने को कभी हल्के कभी ज़ोर से सिर फोड़ रहे हैं, और उनकी गुफ्तगू में आपका मन फंसा रहता है, वो कहीं का उड़ता जुलाब और खून खराब के ऊटपटांग अमानवीय कृ
त्य होने को नहीं छटपटाते रहते.
7/07/2016
5/26/2016
कुछ फिल्में क्यों अच्छी लगती हैं?
लगभग, अच्छे संगीत की ही तरह, यह ऐसी चीज़ है जिसे आम तौर पर बोल कर बताया नहीं
जा सकता. (बोलने वाले बहुत-बहुत कुछ बोलते ही रहते हैं, मगर इन पंक्तियों के
लिखनेवाले को हमेशा लगता है टाकिंग अबाउट द एक्सपीरियंस इस नॉट द एक्सपीरियंस.
इट्स समथिंग रियली सबलाइम.) वही पहचानी दुनिया एकदम नए ढंग में आपके सामने खुलती,
और आपको चमत्कृत करती है. उन्हीं पहचाने रंगों में एकदम अनएक्सपेक्टेड से
सामना करने जैसा एक्सपीरियेंस.
द फिल्म यू सी इज़ नॉट द फिल्म आई सी, एंड फनीली, वी आर वाचिंग इट टुगेदर. सिनेमा हॉल में बैठे हुए सैकड़ों लोग एक ही फिल्म में बहुत सारी फिल्में देख रहे हैं. और बहुत बार, निर्देशक की अपेक्षाओं के परे भी देख रहे हैं. देखते हुए एक बार दिखता है, मगर वह 'दीखना' बाद में धीरे-धीरे, और काफी समय तक, खुलता रहता है. मन में उसकी एक स्वतंत्र दुनिया बन जाती है, और रहते-रहते, बाज मर्तबा आपके अजाने भी, आपकी उससे एक गुफ़्तगू चलती रहती है.
एक दूसरी मज़ेदार बात, वह ख़ास चाक्षुस, सिनेमैटिक एक्सपीरियंस, शब्दों में व्यक्त करना, कर पाना, ऑलमोस्ट 'असंभव' जान पड़ता है. खेल में तनाव का एक ख़ास क्षण, या प्रेम में सुख, या तक़लीफ़, या सांगीतिक अनुभूति की तरल विरलता पर देर तक कोई बातें करता रह सकता है, मगर ठीक-ठीक उसका कहा जाना फिर भी रह ही जाता है.
द फिल्म यू सी इज़ नॉट द फिल्म आई सी, एंड फनीली, वी आर वाचिंग इट टुगेदर. सिनेमा हॉल में बैठे हुए सैकड़ों लोग एक ही फिल्म में बहुत सारी फिल्में देख रहे हैं. और बहुत बार, निर्देशक की अपेक्षाओं के परे भी देख रहे हैं. देखते हुए एक बार दिखता है, मगर वह 'दीखना' बाद में धीरे-धीरे, और काफी समय तक, खुलता रहता है. मन में उसकी एक स्वतंत्र दुनिया बन जाती है, और रहते-रहते, बाज मर्तबा आपके अजाने भी, आपकी उससे एक गुफ़्तगू चलती रहती है.
एक दूसरी मज़ेदार बात, वह ख़ास चाक्षुस, सिनेमैटिक एक्सपीरियंस, शब्दों में व्यक्त करना, कर पाना, ऑलमोस्ट 'असंभव' जान पड़ता है. खेल में तनाव का एक ख़ास क्षण, या प्रेम में सुख, या तक़लीफ़, या सांगीतिक अनुभूति की तरल विरलता पर देर तक कोई बातें करता रह सकता है, मगर ठीक-ठीक उसका कहा जाना फिर भी रह ही जाता है.
5/24/2016
हुर्राट
पिछले चौबीस घंटों में एक के बाद एक तीन फिल्में देखीं. घर पर तमिल देखी, सिनेमा में जाकर पहले मलयालम, और उसके पीठ पीछे, मराठी देखी. बहुत दिनों बाद ऐसा पागलपन किया, अपने यहां की फिल्मों के साथ आठ और नौ घंटे गुज़ारना मज़ाक नहीं है. मगर फिर माथे में आखिरी फिल्म का ऐसा जायका बना रहा कि अपनी पहले की दाेेनों गलतियां भूल गईं.
सैराट में यह अपनी ज़रा-ज़रा-सी की मामूली सोलह-साला हिरोईन है, चेहरे और देह में हिरोईन वाला पाव भर का मटिरियल नहीं. थोड़ी थुलथुल, सांवली है, नैन-नक्श भी ऐसे नहीं कि ऊपरवाले की बहुत कल्पना और मेहरबानी दर्शाते हों, मगर कुछ निर्देशक मंजुले की लिखाई का धन है, और कुछ भली लड़की के अपने अरमानों की मार्मिकता, होनहार क्या ऊंची पतंग उड़ाती है अपने किरदार के साथ, देखकर जी सच्ची लाजवाब हो गया. अपने यहां लड़कियों को ऐसे देख लेने की भेदकारी और भारी नज़र सचमुच विरल है.
प्रेम में ढेर हुए के डायलॉग बहुत सारी एक्ट्रेसेस के हाथ में धर दो, अच्छे से पढ़ देंगी, मगर जिस तरह से यह लड़की, रिंकु राजगुरु, उसे परदे पर जीती, एक्ट-आउट करती है, कि बड़े घर की बेटी हूं, ऐंठ में रहकर ही जीना सीखा है, लेकिन इस प्रेम में कैसी खुद से हारी हो गई हूं, और इस बदकार ने कैसे मेरी आत्मा में ऊष्मा का ताप और आग भर दिया है, और उस प्रेम के पीछे अपनी दुनिया फूंककर, सच्चाई से रुबरु होती, फिर कैसे खुद से भी परायी हुई जाऊंगी, सब जीती है यह ज़रा सी फुदनी लड़की, और क्या धमक और इलान से जीती है.
दसेक दिनों से फिल्म जाने देखना टाल रहा था. ट्रेलर में दिखी लाल, पीले, नीले कपड़ों में सजी कुछ चिरकुट-सी दिखती यह हिरोईन भी एक वज़ह रही होगी कि फिल्म के लिए निकलते-निकलते निकलना स्थगित हो रहा था. उन्हीं लाल, पीले, नीले सलवार-कुर्तों वाले 'सूट' में यह एंटी-छप्पन छूरी रहते-रहते रॉयल एन्फििल्ड की सवारी करके कॉलेज पहुंच जाती है. कॉलेज ग्राउंड में लड़कियों के साथ खेल में बझी लड़के की नज़रों को अपने में अटका पाकर सधे कदमों से जवाब तलब करने पहुंच जाती है, 'तू क्या देख रहा है रे?' लड़का हकलाता जवाब देता है कि वह खेल देख रहा था. लड़की तमककर- 'मैं देख नहीं रही तू क्या देख रहा है?' और फिर उतने ही कैजुअलनेस से कहना, 'मैंने ये नहीं कहा तू देख रहा है मुझे पसंद नहीं!' और पलटकर निकल जातना..
ट्रैक्टर पर सवार लड़के की झोपड़ दुनिया में पहुंच जाती है, झोपड़े के बाहर बर्तन धोती 'संभावित' सास और तेरह-साला ननद के हाल-चाल लेती, मूलत: खुलेआम अपने दिल के लुटेरे को न्यौतने गई है, कि आकर उसकी संगत में उसके खेत टहल ले. यह जानते हुए कि घर पर किसी को खबर हुई, गुडा किस्म के भाई या रौबीले तबीयत के पाल्टिकल बाप के तो दोनों के लिए कितना खतरा होगा, फिर भी लड़की चार हाथ आगे निकलकर यह सब करती है, क्यों करती है? इसलिए कि प्रेम के हाथों बेसहारा हुई जाती है. वही बेसहारापन, अपने प्रेमी, और उसकी गरीबी की संगत में, उसकेे अमीर गुरुर के छाती पर सांप-सा लोटता उसे अब दूसरे छोर पर पराया और बेसहारा करके तोड़ता है तो लड़की उस टूट को भी उसी मार्मिकता से जीती है.
इन मार्मिकताओं को एक्सप्रेस करनेवाले गाने भी कुछ उसी चाल में दौड़ते हैं. और दुनिया, लगभग, मन के थापों के अनुरुप ढलती चलती है, इसे सिनेमा में इस सहजभाव हासिल कर लेना आसान नहीं है.
फिल्म में दसेक मिनट होंगे, मारा-मारी और लाचारी के कुछ मेनस्ट्रीम सिनेमाई लटके-झटके, बाकी खालिस सोना है. नागराज पोपटराव मंजुलेे की पहली, 'फंड्री' कहीं कोने में चुपचाप तैयार की गई, एक छोटी कलाकारी थी, 'सैराट' मेनस्ट्रीम के बीच मैदान में बजाया गया बड़ा वाला बाजा है, और बड़े अच्छे से बजाया गया है. मराठी लोग तो बढ़-बढ़कर देख ही रहे हैं, आप भी देख आइए.
सैराट में यह अपनी ज़रा-ज़रा-सी की मामूली सोलह-साला हिरोईन है, चेहरे और देह में हिरोईन वाला पाव भर का मटिरियल नहीं. थोड़ी थुलथुल, सांवली है, नैन-नक्श भी ऐसे नहीं कि ऊपरवाले की बहुत कल्पना और मेहरबानी दर्शाते हों, मगर कुछ निर्देशक मंजुले की लिखाई का धन है, और कुछ भली लड़की के अपने अरमानों की मार्मिकता, होनहार क्या ऊंची पतंग उड़ाती है अपने किरदार के साथ, देखकर जी सच्ची लाजवाब हो गया. अपने यहां लड़कियों को ऐसे देख लेने की भेदकारी और भारी नज़र सचमुच विरल है.
प्रेम में ढेर हुए के डायलॉग बहुत सारी एक्ट्रेसेस के हाथ में धर दो, अच्छे से पढ़ देंगी, मगर जिस तरह से यह लड़की, रिंकु राजगुरु, उसे परदे पर जीती, एक्ट-आउट करती है, कि बड़े घर की बेटी हूं, ऐंठ में रहकर ही जीना सीखा है, लेकिन इस प्रेम में कैसी खुद से हारी हो गई हूं, और इस बदकार ने कैसे मेरी आत्मा में ऊष्मा का ताप और आग भर दिया है, और उस प्रेम के पीछे अपनी दुनिया फूंककर, सच्चाई से रुबरु होती, फिर कैसे खुद से भी परायी हुई जाऊंगी, सब जीती है यह ज़रा सी फुदनी लड़की, और क्या धमक और इलान से जीती है.
दसेक दिनों से फिल्म जाने देखना टाल रहा था. ट्रेलर में दिखी लाल, पीले, नीले कपड़ों में सजी कुछ चिरकुट-सी दिखती यह हिरोईन भी एक वज़ह रही होगी कि फिल्म के लिए निकलते-निकलते निकलना स्थगित हो रहा था. उन्हीं लाल, पीले, नीले सलवार-कुर्तों वाले 'सूट' में यह एंटी-छप्पन छूरी रहते-रहते रॉयल एन्फििल्ड की सवारी करके कॉलेज पहुंच जाती है. कॉलेज ग्राउंड में लड़कियों के साथ खेल में बझी लड़के की नज़रों को अपने में अटका पाकर सधे कदमों से जवाब तलब करने पहुंच जाती है, 'तू क्या देख रहा है रे?' लड़का हकलाता जवाब देता है कि वह खेल देख रहा था. लड़की तमककर- 'मैं देख नहीं रही तू क्या देख रहा है?' और फिर उतने ही कैजुअलनेस से कहना, 'मैंने ये नहीं कहा तू देख रहा है मुझे पसंद नहीं!' और पलटकर निकल जातना..
ट्रैक्टर पर सवार लड़के की झोपड़ दुनिया में पहुंच जाती है, झोपड़े के बाहर बर्तन धोती 'संभावित' सास और तेरह-साला ननद के हाल-चाल लेती, मूलत: खुलेआम अपने दिल के लुटेरे को न्यौतने गई है, कि आकर उसकी संगत में उसके खेत टहल ले. यह जानते हुए कि घर पर किसी को खबर हुई, गुडा किस्म के भाई या रौबीले तबीयत के पाल्टिकल बाप के तो दोनों के लिए कितना खतरा होगा, फिर भी लड़की चार हाथ आगे निकलकर यह सब करती है, क्यों करती है? इसलिए कि प्रेम के हाथों बेसहारा हुई जाती है. वही बेसहारापन, अपने प्रेमी, और उसकी गरीबी की संगत में, उसकेे अमीर गुरुर के छाती पर सांप-सा लोटता उसे अब दूसरे छोर पर पराया और बेसहारा करके तोड़ता है तो लड़की उस टूट को भी उसी मार्मिकता से जीती है.
इन मार्मिकताओं को एक्सप्रेस करनेवाले गाने भी कुछ उसी चाल में दौड़ते हैं. और दुनिया, लगभग, मन के थापों के अनुरुप ढलती चलती है, इसे सिनेमा में इस सहजभाव हासिल कर लेना आसान नहीं है.
फिल्म में दसेक मिनट होंगे, मारा-मारी और लाचारी के कुछ मेनस्ट्रीम सिनेमाई लटके-झटके, बाकी खालिस सोना है. नागराज पोपटराव मंजुलेे की पहली, 'फंड्री' कहीं कोने में चुपचाप तैयार की गई, एक छोटी कलाकारी थी, 'सैराट' मेनस्ट्रीम के बीच मैदान में बजाया गया बड़ा वाला बाजा है, और बड़े अच्छे से बजाया गया है. मराठी लोग तो बढ़-बढ़कर देख ही रहे हैं, आप भी देख आइए.
3/08/2016
लड़कियों की, संयोग ही होगा, सिनेमा होगा..
औरतों के जीवन पर दो टेढ़ी-मेढ़ी फ़िल्में देखकर मन लाजवाब हुआ. मज़ेदार यह कि रात-रात भर उनींदे में यहां-वहां इतना-इतना बीनते रहते हैं, मगर इन- एक और दो- दोनों ही फ़िल्मकारों के काज से कभी भी पहले टकराहट नहीं हुई थी, और एक दूसरी वैसी ही मज़ेदार बात यह कि बॉयज़ आन द साइड हरबर्ट साहब की आखि़री फ़िल्म है (किसी करियर के अंत का फिर कैसा शानदार फिनिशिंग स्ट्रोक है, मेरी लुई पार्कर, व्हूपी गोल्डबर्ग और ड्रयू बैरिमोर की एक्टिंग के बाबत सोचता अभी भी भावुक हो रहा हूं, और फिर इतना तो सिनेमाई साउंड डिज़ाईन, और वैसी ही मन को ऊपर-नीचे करती उसकी साउंड-एडिटिंग), जैसेकि माई ब्रिलियेंट करियर माइल्स फ्रैंकलिन की पहली किताब है, कहते हैं हंसते-खेलते उसने सोलह साल की अवस्था में लिख ली थी, और यह सोचकर लिखी थी कि दोस्तों का एंटरटेनमेंट करेगी. जिलियन आर्मस्ट्रॉंग की फ़िल्म ने तो मेरा किया ही, और ऐसा किया जो बहुत-बहुत समय से नहीं किया था. जियो, लइकियो..
Subscribe to:
Posts (Atom)