9/25/2012

शैटर्ड ग्‍लास

पत्रकारी वीर बालकत्‍व पर एक अमरीकी फ़िल्‍म है.. फ़िल्‍म के पीछे यह कहानी है.. कहानी वैसे थोड़ी पुरानी, 1998, की है, मगर आज के समय में कहीं ज्‍यादा प्रासंगिक है..

5/14/2012

अंतरंग अजनबी..

एडोलेसेंस ठुमकता नहीं गुज़रता, छाती में किसी जंगखाये खंजर की तरह गड़ा, अटका रहता है. जॉन दीगन की ऑस्‍ट्रेलियन फ़ि‍ल्‍म ‘द ईयर माई वॉयस ब्रोक’ (’87) इसी उलझे किशोरावस्‍था के भूगोल में घूमती है. धीमे-धीमे गिरह खोलने का कभी सुघड़ भावलोक बुनती है. हाई स्‍कूल निपटाकर अब कॉलेज की ओर निकलने से पहले की एक जश्‍नी सांझ में चंद किशोरों का मन व उनके आसपास का संसार लम्‍बे ट्रैकिंग शॉट्स में संवारती और खंगालती चलती, जॉर्ज लुकाच की सन् तिहत्‍तर की फ़ि‍ल्‍म ‘अमेरिकन ग्रैफिटी’ का पेस तो और धीमा है (गो सिनेमेटि‍कली ज़्यादा सुरीला है) क्‍योंकि यहां कहानी सिर्फ़ एक सांझ, गुज़रती रात की हो रही है, मगर चूंकि यह ऑस्‍ट्रेलिया नहीं अमरीका है, और जॉर्ज लुकाच का है, यहां जंगखाये खंजर के घाव नहीं हैं, ताज़ा-ताज़ा जीवन में उतरे कारों और प्रेम और ‘जाने कौन-सा कैसा तो भविष्‍य’ की अनिश्चिंताओं, तीव्र रोमान की, सुरीली कॉरियोग्राफ़ी है.

कल रात, तीसरी मर्तबा, फिर से ‘मैन ऑन द ट्रेन’ देखकर खुश हो रहा था, कि निर्देशक की अपने माध्‍यम के साथ क्‍या मोहब्‍बत है, इकॉनमी में एक्‍टर के चेहरे (ज़्यां रोशफॉर) से क्‍या-क्‍या भाव निकलवाते रहने की क्‍या माहिरी है. छत्‍तीस फ़ि‍ल्‍मों के लम्‍बे करियर में फ्रांसीसी पैट्रिस लेकों ने कुछ उतनी नहीं बनाई हैं, मगर काफ़ी सारी काफ़ी अच्‍छी फ़ि‍ल्‍में बनाई हैं, थ्रिलर्स के उस्‍ताद लिखवैया जॉर्ज सिमेनॉन की रचना पर आधारित ‘मोश्‍यू हायर’, मन के उलझावों के तारों का संगीत समझती ‘द हेयरड्रेसर्स हस्‍बैंड’, ‘गर्ल ऑन द ब्रिज’, ‘इंटिमेट स्‍ट्रैंजर्स’; या समय और समाज में सत्‍ता का महीन विमर्श बुनती, निहायत सुलझी फ़ि‍ल्‍में ‘सां पियेर की बिधवा’‘रिडिक्‍यूल’.. कहीं से हाथ लहे तो, आखिर की दो तो ज़रुर ही देखें.

2/21/2012

कैनडा की बबुनी तुतली पुतली..

अमरीका, और शायद दूसरी भी बड़ी दुनिया की नज़रों में एक लगभग बेमतलब-सा देश होता है, जिसके होने पर अमरीका में ढेरों लतीफ़े होते हैं, भले उस बेमतलबी, आज के कारोबारी देश-समय में एक अनोखी, अनूठी निर्माण व वितरण की संस्‍था‍ होती है, जिसकी छतरी के नीचे से न केवल क्‍लॉड जुत्रा का विरल तरल संसार (विनोदकुमार शुक्‍लीय संसार कहूं? मगर कुछ साहित्यिक परिचितों से पहले कहा था, वह बाद में जुत्रा प्रकरण पर मेरी राय सुनने से बचने लगे थे..) बाहर आया होता है, निगरानी में पूरा पूरा एक बागीचा होता है, कितनी, कहां-कहां की रुपकथाएं होती हैं, एनीमेशन का एक समूचा धनमन संसार होता है, बाकियों को बाद में समझते रहियेगा, फिलहाल यही एक और दो के ज़ायके में तरिये..  

2/18/2012

सॉते, पिकोली, श्‍नाइडर.. क़िस्‍सा-ए-ज़िंदगी..

याद है लीनो वेंतुरा और नौजवान बेलमोंदो की काली-सफ़ेद उदास, तने तार सी चोट करती, पेट में गांठ बनाती फ्रेंच थ्रिलर “द बिग रिस्‍क”? सन् साठ की बनी फ़िल्‍म की स्‍टोरीटेलिंग और सिनेमैटिक उठान ऐसी थी कि दो साल पहले “टच ऑफ़ इविल” का सिनेमाई सप्‍तम बजा गए बाबू ऑरसन वेल्‍स‍ भी उसे देखकर क्‍लॉद सॉते को दाद देते. सॉते हिंदी और हिंदुस्‍तानी प्रियसुदर्शन होते तो फिर सारे जीवन छोटा रिस्‍क, एक और रिस्‍क और तीन रिस्‍क की राइसाइकलिंग करते होते.. मगर फ्रेंच सिनेकारों का ही मज़ा है कि वो जीवन भर एक ही मुन्‍ना भाई और हम दिल दे चुके बलम नहीं खेलते, गाते और भुनाते रहते, सॉते एक अकेले नहीं थे, ढेरों फिल्‍मकारों के साथ है कि बड़ी सफलताओं के बाद पहचानी और भुनी लीक के दायरे से बाहर, एकदम दूसरे सुर की रचनाएं कीं. (अपना फ्रांसुआ याद आया? त्रूफो? '400 ब्‍लोज़', 'ज़ूल व ज़िम', 'शूट द पियानो प्‍लेयर', 'एदेल एच की कहानी' या 'फारेनहाइट 451' में कहीं कभी कोई समानता नज़र आई?सिवाय एक पहुंचे हुए सुर के खुमार के?). ख़ैर. होता है. फ्रेंच सिनेमा में दिखता है. त्रूफो वाले रास्‍ते पर बहुत सारे फिल्‍मकार चलते दिखेंगे. इसीलिए वेंतुरा की सनसनी के दस वर्षों बाद अस्‍वाभाविक नहीं कि 1970 में सॉते मिशेल पिकोली, रोमी श्‍नाइडर और लीया मस्‍सारी के साथ “द थिंग्‍स ऑफ़ लाइफ़” बना रहे थे,
फ़ि‍ल्‍म के आखिर का आधा घंटा कार एक्‍सीडेंट में पिकोली का जख़्मी होना और अवचेतन में खुद से गुफ्तगू का बड़ा डेंस डॉक्‍यूमेंटेशन है. ऐसी गुफ्तगू फ्रेंच फिल्‍मों में ही संभव होते हैं. एक्‍सीडेंट के कुछ पहले पिकोली एक दूसरी तरह की दुर्घटना से गुज़र रहा है, उसके साथ कार में बैठी उसकी प्रेमिका श्‍नाइडर उसकी बाबत कुछ नेक़ विचार उसके कोट पर टांक रही है, उसी बातचीत की चंद पंक्तियां, अंग्रेजी में, मैं यहां टीप रहा हूं :

“You love me because I'm here. But if you had to cross the street, you'd be lost. You're like an old man… I want to weep. Because I'm tired. Tired of loving you… I can't give you what you no longer have: an island, old friends, a boat... a school, I don't know... streets, towns, a garden... a story. We have no story. For you, it's like childless couples... It's a failure. I can do nothing about it… You've nothing to say?”

ज़ाहिर है पिकोली प्रेमिका के साथ किसी संगत बातचीत में उतरने की जगह तेज़ कार चलाते हुए उसे सर के बल खड़ा कर देने को कहीं ज़्यादा वाजिब समाधान समझता है.

2/16/2012

लुई माल और आंद्रे के संग डिनर..

लगभग चालीस वर्षों के करीयर में लुई माल ने ढेरों दिलचस्‍प फ़िल्‍में बनाईं. आईएमडीबी के इस लिंक पर नज़र मारकर देखें क्‍या-क्‍या बनाई. सन् अड़सठ में हिंदुस्‍तान के अलग-अलग हिस्‍सों की टहल करते हुए “फैंटम इंडिया” के नाम से एक बड़ा (380 मिनट) मिनी सीरिज़ भी बनाया था, वह डॉक्‍यूमेंट्री तब ही नहीं, अब भी बहुतों ने नहीं देखा है, न उसकी बाबत कोरी कथाओं से अलग कुछ जानते हैं, अलबत्‍ता अब उसे यू-ट्यूब पर देख सकते हैं. ख़ैर, यहां 1981 की उनकी एक फ़िल्‍म‍ की बतकुच्‍चन की चिप्‍पी चिपका रहा हूं, दिलचस्‍पी रखनेवाले फ़िल्‍म खोजकर चाहेंगे तो देख लेंगे.
“I don't... I don't think we're even aware of ourselves or our own reaction to things. We...We're just going around all day like unconscious machines... and meanwhile there's all of this rage and worry and uneasiness... just building up and building up inside us.”
“That's right. It just builds up, uh... and then it just leaps out inappropriately.”
“Because somehow in our social existence today... we're only allowed to express our feelings, uh... weirdly and indirectly. If you express them directly, everybody goes crazy.”
“I mean, I remember a night. It was a couple of weeks after my mother died. And I was in pretty bad shape. And I had dinner with three relatively close friends... two of whom had known my mother quite well... and all three of whom had known me for years. You know that we went through that entire evening without my being able to... for a moment, get anywhere near what... Not that I wanted to sit and have this dreary evening... in which I was talking about all this pain that I was going through and everything. Really, not at all. But the fact that nobody could say... ‘Gee, what a shame about your mother’ or ‘How are you feeling?’ It was just as if nothing had happened. They were all making these jokes and laughing… I mean, do you realize, if you brought that situation into a Tibetan home... That'd be just so far out. I mean, they wouldn't be able to understand it. I mean, really, the... The Africans would have probably put their spears into all four of us... 'cause it would have driven them crazy. They would have thought we were dangerous animals or something like that.
“Right… I mean, that's absolutely abnormal behavior. But those are typical evenings for us. I mean, we go to dinners and parties like that all the time. These evenings are really like sort of sickly dreams... because people are talking in symbols.”
“Everyone is sort of floating through this fog of symbols and unconscious feelings.”
“No one says what they're really thinking about. Then people will start making these jokes that are really some sort of secret code.”
“Right. Well, what often happens in some of these evenings... is that these really crazy little fantasies will just start being played with, you know... and everyone will be talking at once and sort of saying... ‘Hey, wouldn't it be great if Frank Sinatra and Mrs. Nixon and blah-blah-blah... were in such and such a situation?’ You know, always with famous people, and always sort of grotesque. Or people will be talking about some horrible thing... like... Like, uh, the death of that girl in the car with Ted Kennedy... and they'll just be roaring with laughter. I mean, it's really amazing. It's just unbelievable. That's the only way anything is expressed, through these completely insane jokes. I mean, I think that's why I never understand what's going on at a party. I'm always completely confused.”
“You know, uh, Debby once said, after one of these New York evenings... she thought she'd traveled a greater distance... just by journeying from her origins in the suburbs of Chicago... to that New York evening... than her grandmother had traveled in, uh, making her way... from the steppes of Russia to the suburbs of Chicago.”
“I think that's right. You know, it may... it may be, that one of the reasons... that we don't know what's going on... is that when we're there at a party, we're all too busy performing.”
“Uh-huh.”
“That was one of the reasons that, uh, Grotowski gave up the theater. He just felt that people in their lives now were performing so well... that performance in the theater was sort of superfluous... and, in a way, obscene.”
“Huh.”
“Isn't it amazing how often a doctor... will live up to our expectation of how a doctor should look? When you see a terrorist on television, he looks just like a terrorist. I mean, we live in a world in which fathers... or single people, or artists... are all trying to live up to someone's fantasy... of how a father, or a single person, or an artist should look and behave. They all act as if they know exactly how they ought to conduct themselves... at every single moment... and they all seem totally self-confident. Of course, privately people are very mixed up about themselves.”
“Yeah.”
“They don't know what they should be doing with their lives. They're reading all these self-help books. Oh, God! I mean, those books are just so touching, because they show... how desperately curious we all are to know how all the others of us... are really getting on in life... even though, by performing these roles all the time... we're just hiding the reality of ourselves from everybody else. I mean, we live in such ludicrous ignorance of each other. We usually don't know the things we'd like to know... even about our supposedly closest friends. I mean... I mean, you know... suppose you're going through some kind of hell in your own life. Well, you would love to know if your friends have experienced similar things. But we just don't dare to ask each other.”
“No. It would be like asking your friend to drop his role.”
“I mean, we just put no value at all on perceiving reality.
“I mean, on the contrary, this incredible emphasis that we all place now... on our so-called careers... automatically makes perceiving reality a very low priority.”

2/13/2012

अच्‍छी फ़िल्‍मों को देखने की तक़लीफ़..

फ़ि‍ल्‍म देखना बड़ा मुश्किल काम है. हिंदी, हिंदुस्‍तानी और भारतीय फ़ि‍ल्‍में नहीं, वो तो अभी भी, और जाने कितने ज़मानों तक ‘अच्‍छे‘ के मुहावरों, बुनावटों से बाहर रहेगी; मैं सिनेमा के मार्मिक, सपनीले, अंतरंग छांहदार सुनहले धूपों की ओर इशारा कर रहा हूं, अच्‍छा, भव्‍य और वैभवकारी सिनेमा.. जिसका ‘अच्‍छा’ और ‘उदास’ देखते हुए आप नहाना, चाय पीना भूल जायें, उसकी डेंसिटी कुछ इस तरह आपके मन में घर करके बैठे, उसके सरस सरल एक्‍सेसिबल संवादों की मिठास, उसके किरदारों के एक्‍सप्रेशन, उसका स्‍पेस और उसमें कैमरे की लचक, महीनी का घूमना कि आपकी फिर उससे गुज़रने के बाद किसी से बात करने की त‍बीयत न हो, चहककर फेसबुक के स्‍टेटस में उसे याद करना आपको बेजा, भौंडी और घिनौनी हरकत लगे, तकिये में औंधे गिरे, मुंह गड़ाये चुप्‍प और सन्‍न आप सिर्फ़ यह सोचते फिरें कि कैसे जी लेते हैं लोग ऐसा जीवन कि उससे फिर ऐसा तरल सिनेमा निकलकर बाहर आता है, ज़ाक प्रिवेर जैसी लोग लिखाई कर लेते हैं, सिनेमा के उस शुरुआती दौर तक में ज़्यां गाबें की गुफ़्तगू कर लेते हैं, मैं विद्यासागर जी की संगत में बैठने की फोटु उतरवा लेता हूं, उनके व्‍यक्तित्‍व की महीनी का कुछ भी दिमाग में नहीं बना, बचा रहता, इतनी ज़रा-सी सौजन्‍यता तक नहीं कि फिर कभी उन्‍हें फ़ोन पर नमस्‍ते कहने की सूरत तक में ही उन्‍हें याद किया हो!

जीवन का अच्‍छा हमें इसी तरह सन्‍न करता है, अपने गुज़र चुकने के बाद एक तीखी कचोट और गहरे अवसाद के नशे में लपेट रहने की तरह घेरे रहता है, कि ओह, क्‍या था, और कि दोस्‍त, तब ठीक-ठीक समझ क्‍यों नहीं सके? ठीक-ठीक कभी समझ सकेंगे, कभी भी? इस एक छोटे, जीवन में? फ़ेल्‍लीनी को, क्‍लाउंस, ऑकेस्‍ट्रा रिहर्सल, और नाव चलती रही के संगीत, उसके भव्‍य सिनेमाई उन्‍वानों को? जहां सतह पर कुछ, किसी कहानी के नहीं ‘दीखने’ में भी कितनी सारी कहानियां खुलती होती हैं? एक ज़रा-सी ग़लतफ़हमी की टेक पर हिचकॉक कैसा भव्‍य ग़लत आदमी की दुनिया खड़ी कर लेते हैं, आठ और आधा की सांद्रा मिलो और कबीरियन रातों का फ्रांसुआ पेरियेला विसिता’ की उदास, मोहिनी कस्‍बाई मुर्खताएं? मैक्‍स ऑफुल्‍स सन् पचास में ‘चकरी’ बनाते हैं, जिसके साठ सालों बाद हिंदुस्‍तानी सिनेमा जिस चकरी के ‘च’ तक भी नहीं पहुंचता, साधन तो नहीं, मन के अज़ीज़ अरमानों में कहां कसर रह जाती है? आर्थर मिलर एक नहीं, एक के बाद एक अपने किरदारों से कैसी दिलअज़ीज़ लाइनें बुलवाते रहते हैं, फ़ि‍ल्‍म तक़लीफ़ और सिनेमाई सुख के कैसे नशीले कॉकटेल में आपकी पलकों पर गिरी रहती है, कैसे कोई जॉन ह्युस्‍टन बुढ़ाये गेबल के साथ कोई ‘मिसफिट्स’ बना लेता है? लोग याद करते हैं, ईनामों से नवाजी जाती है जेम्‍स कैमरोन की ‘अवतार’, कहां से उड़ाई गई है उससे बारह वर्षों पहले बनाई  मियाज़ाकी की ‘मोनोनोके’ की कविता और उसका दर्द हमारे संभाले नहीं संभलता, हमें याद रहता है?

अच्‍छी फ़ि‍ल्‍म देखना बड़ा मुश्किल काम है.

आप प्‍लीज़ जाकर जौहर की अगिनपथ देख आईए.