अब सोचकर हैरानी होती है, कि कैसा किस तरह की संगठनात्मक समझ थी, क्या इकॉनमी थी, कि आज से लगभग पैंतालीस साल पहले, उड़ीसा-से पिछड़े राज्य के एक टिनहा शहर में एक से एक सारी फ़िल्में पहुंच जाती थीं? रेगुलर रन में न भी हों तो मॉर्निंग शोज़ में जगह बनाई चली ही आती थीं. ग्रेगरी पेक की ‘रोमन हॉलिडे’, ‘मकेनाज़ गोल्ड’ से लेकर ‘ज़ुलू’, देवानंद की 'जाली नोट’, ‘काला बाज़ार’, ‘बात एक रात की’, लीन की ‘रायन्स डॉटर’, ‘ब्रीफ एनकाउंटर’, शेख मुख़्तार और संजीव कुमार की खूंखार काली-सफ़ेद फ़िल्में, बिमल रॉय की ‘दो बीघा ज़मीन’, ‘प्रेमपत्र’ सारी की सारी तभी देखी थी जब अभी- अंग्रेजी नहीं हिंदी में ही- ग्रेगरी लिखने की तमीज नहीं बनी होगी, और ऑलमोस्ट सब फ़िल्में मॉर्निंग शोज़ में ही देखी थीं. ज़्यादातर कोर्णाक टाकीज़ में (कौन पागल था जो ऐसा सिनेमा चला रहा था? पिछले दस वर्षों की जितनी खबर है उसके अनुसार अब वहां सिर्फ़ उड़िया फ़िल्में ही दिखाई जाती हैं!). मगर बचपन के उन भोले, तंगहाल दिनों में भी, बुद्धि इतनी खुल गई थी कि आमतौर पर अच्छे लगते बिमल रॉय की ‘दो बीघा ज़मीन’ के रोने-धोने से उकताहट होती; उस तरह के जितने रोवनिया, और फलतुआ के हंसोड़, चाइल्ड आर्टिस्ट थे उन सब रतन कुमारों, सुधीर और सुशील कुमारों को धर-धरके थुरियाने की इच्छा होती, कि अबे होनहारी के नालायको, तुम्हारी उम्र के बच्चे ऐसे होते हैं? (या होते होंगे तभी हिन्दी फ़िल्में ऐसी रोवनिया-बहार, भदर-भदर भावकुंड में नहाई भावना-अंगार बनती हैं?). अपनी बुद्धि में रतन कुमारों, बेबी नाज़ों से तब भी शेख़ मुख़्तार ज़्यादा भला, भोला और निष्पाप लगते. कोई बच्चा अच्छा लगता तो वो ‘कारवां’ और ‘आन मिलो सजना’ का जूनियर महमूद होता. अच्छे बालकों की होनहार नालायकीयत की हाय-हाय की बनिस्बत उसके हरामीपने सॉलिड और सुहाने लगते.
ख़ैर, मैं फिर बहक गया (वैसे ईश्वर जहां कहीं भी हों जूनियर महमूद को सुखी रखे. ईश्वर जहां कहीं भी हैं या नहीं मालूम नहीं, मगर जानता हूं जूनियर महमूद इसी शहर में है, मगर कितना सुखी है नहीं जान रहा हूं. इसी शहर में रहते हुए मैं ही कहां सुखी हो पा रहा हूं?).. बात बचपन के मॉर्निंग शोज़ की हो रही थी. अच्छे लगते 'हाउस नंबर 44' की कल्पना कार्तिक और ‘दो बीघा ज़मीन’ के बाहर के बिमल रॉय की हो रही थी. याद है ‘प्रेमपत्र’ देखते हुए मैं बहुत भावुक हुआ था. तलत महमूद की आवाज़ में गाते हुए शशी कपूर और अच्छी साधना के बीच की ग़लतफ़हमी कितनी जल्दी खत्म हो (कि ओ भगवान, नहीं ही होगी?) के तनाव में बगल की सीट पर बैठे अपने दोस्त को किसी भी क्षण तीन थप्पड़ मार सकता था (या बाहर, साईकिल स्टैंड में जाकर बारह साइकिलों के ट्यूब की हवा खोल दे सकता था, ओ गॉड!). ओह, जीवन में कहीं नहीं था, मगर प्रेम की मिसअंडरस्टैंडिंग की भीनी अनुभूतियों के कैसे सुहाने दिन थे! तलत महमूद गाता शशी कपूर ही नहीं, एक और लव इंटरेस्ट प्ले कर रहा (बाद के दिनों में विलेन का टुटपुंजिया दाहिना हाथ) सुधीर भी अच्छा लगता.
समझदार लोगों ने ही नहीं, मैंने खुद तक, खुद से दर्जनों मर्तबा कहा है पीछे छूटी चीज़ों को पीछे मुड़कर मत पकड़ों, हाथ का करंट ही नहीं लगता, दिल पर भी बहुत ठेस पहुंचती है, मगर देखिए, हाथ हैं कि पीछे छूटकर बीच-बीच में कुछ टटोल आने से बाज नहीं आते. सदियों पहले अर्नस्ट लुबिश की कुछ फ़िल्में देखी थीं, फिर से टटोलता ‘द शॉप अराउंड द कॉर्नर’ और ‘टू बी ऑर नॉट टू बी’ में घुसा और उनकी सरल कसावट से लाजवाज हो गया. चालीस के दशक की फ़िल्में और अभी तक एकदम, ज़रा भी बासी नहीं हुई हैं. मगर वह सिर्फ़ लुबिश और अच्छे हॉलीवुड का मामला नहीं है, तिरालीस की बनी इटली के विस्कोंती की ‘ओस्सेसियोने’ देखिए, वह इतने वर्षों के फ़ासले पर अभी भी एकदम आधुनिक लगती है, या सत्तावन की ‘द व्हाइट नाइट्स’, कहीं से भी ‘डेट’ नहीं हुई. बचपन की देखी हिंदी की ‘गंगा जमुना’ थी (निर्देशक: नितिन बोस. शायद एक के बाद एक उसे तीन मर्तबा तो ज़रूर ही देखा होगा, अभी कुछ दिनों पहले फिर देखा तो मन के ट्यूब की सारी हवा निकल गई, बड़ा खाली-खाली-सा लगा कि दिलीप कुमार ही नहीं, वैजयंती माला, कन्हैया लाल तक अच्छे लगते हैं, डायलाग कसे लिखे गए हैं, मगर सब अंतत: शुद्ध किस्सागोई ही है, उससे ज्यादा की आकांक्षा फिल्म कहीं करता नहीं दिखता, और ढाई घंटे की फ़िल्म में शुद्ध सिनेमाई आनंद कहें तो आठ मिनट से ज्यादा आपको नहीं मिलता! मुझे नहीं ही मिला. वैसे ही बिमल राय की सन् साठ में बनी एक फ़िल्म है, ‘परख’. संगीत के साथ कहानी भी सलिल चौधुरी की है, मोतीलाल और अच्छी साधना है, (गाने सब प्यारे हैं. ग्रेट सलिल चौधुरी.) मगर एक बेसिक-सी कहानी कहने से अलग फ़िल्म और कुछ करती नज़र नहीं आती. एक गाने के पिक्चराइज़ेशन से अलग दस दिन पहले की देखी फिल्म का अब मैं अलग से कुछ भी और याद नहीं रखना चाहता.
इक ज़रा-सी पिद्दी किस्सागोई तक ही जाकर कहां, क्यों अटक जाती हैं हमारी हिन्दी फ़िल्में? या हमारी हिन्दी का साहित्य ही? ऐसा बाहर के संसारों में ही होता है, क्यों होता है, कि पॉपुलर फ़िल्म बनानेवाले भी ‘जुलिया’ और ‘द फिक्सर’ जैसी पेचीदा, रिस्की स्टोरीटेलिंग में न केवल उतरें, उसे करीने से निबाह भी जायें? ‘हाई नून’ सा कसा वेस्टर्न बनानेवाला फ़िल्ममेकर ही ‘ए मैन फॉर ऑल सीजंस’ जैसी मुश्किल घड़ी में जीवन कैसे जियें की विमर्शवादी फ़िल्म भी किस सरस नफ़ासत से बनाये लिये जाता है? या ‘ग्रां-प्री’ और ‘द ट्रेन’ जैसी एक्शन फ़िल्मों का निर्देशक ‘फिक्सर’ जैसी दार्शनिक स्टोरीटेलिंग में घुसने का रिस्क उठाता है! एलेन बेट्स ‘ज़ोरबा द ग्रीक’ का मानवीय उच्छावास ही नहीं, ‘वीमेन इन लव’, ‘एन अनमैरिड वुमन’ के साथ ‘द फिक्सर’ जैसी टेढ़ी, भारी फ़िल्म में अभिनय करने का ज़ोखिम उठाता है?
पूरा जीवन सिनेमाटॉग्राफी में खपाने, ‘मेफिस्टो’, ‘आंगी वेरा’ जैसी अनूठी से लेकर ‘मलेना’ सी चिरकुटई शूट कर चुकने के बाद, अपने लंबे करियर के दूसरे छोर पर आकर, लाजोस कोलताई- एक सिनेमाटॉग्राफ़र- अपनी पहली फ़िल्म का निर्देशन अपने हाथ में लेता है तो वह ‘ज़िन्दगी ना मिलेगी दोबारा’ का रोमानी कोलतार सजाने की जगह होलोकास्ट और ऑश्वित्ज़ के मुश्किल बीहड़ में न केवल उतरा जाता है, उसे बिना ˆलाइफ़ इज़ ब्यूटिफुल’ का भदेस बनाये खूबसूरत, सघन मार्मिक सिनेमाई पाठ भी बनाये लिये जाता है? एकदम उम्दा कास्टिंग, एन्नियो मोरिकोने का प्यारा बैकग्राउंड स्कोर, और उन्नीस सौ पचहत्तर में लिखे अपने पहले उपन्यास 'फेटलेसनेस' पर खुद इमरे कर्तेज़ की लिखी खूबसूरत स्क्रिप्ट (हिंदी में किताब का अनुवाद वाणी ने छापा है, किसी ने पढ़ रखा हो तो बताये कैसा अनुवाद है).
कैसे बना लेते हैं लोग मुश्किल सिनेमा, जुलिया के जेसन रोबार्ड्स जैसी बिना बहुत देह हिलाये अनोठी एक्टिंग कर ले जाते हैं, जबकि हमारे यहां हम फकत एक गाने का पिक्चराइज़ेशन तक करके रह जाते हैं?