वर्षों पहले किसी दूतावासी स्क्रिनिंग में एक रूसी फ़िल्म देखकर दंग हुआ था, इतने अर्से बाद दुबारा देखकर फिर सन्न होता रहा. यह सोचकर और सन्नाता रहा कि मैं ही नहीं, फिल्मों में रुचि रखनेवाले ढेरों और लोग होंगे जो उन्चालीस वर्ष की कम उम्र में गुज़र गई रूसी फिल्ममेकर लारिसा शेपित्को के नाम-काम से परिचित न होंगे! दुनिया और राजनीति के खेल अनोखे होते हैं, कुछ लोगों को, और कुछ कृतियों को दुनिया इस छोर से उस ओर तक जान जाती है और कुछ विरल मार्मिकताअें के सघन पाठ होते हैं पढ़नेवालों तक उनका ''क'' तक नहीं पहुंचता. (अंग्रेजी में शीर्षक) ''द एसेंट'' जैसी फ़िल्म बनाने, व बर्लिन में उसके लिए गोल्डर बीयर का पुरस्कार से नवाजे जाने के बावजूद लारिसा को अब जबकि सोवियत शासन भी सुदूर का किस्सा हुआ क्यों ज्यादा नहीं जाना गया की कहानी ''गार्डियन'' में उनके स्मरण पर छपी इस छोटी टिप्पणी से कुछ पता चलती है. एक छोटी याद यह यू-ट्यूब के पन्ने पर है. लारिसा का यह आईएमडीबी पेज़ का लिंक है, जिन भाइयों से जितनी और जो लहे, फ़िल्में देखकर खुद को धन्य करें.
पिछले साल एक और रूसी फ़िल्म (''आओ और देखो'') देखकर दांत और उंगली दबाता रहा था, अभी जानकर फिर दबा रहा हूं कि उस फ़िल्म को बनानेवाले एलेम क्लिमोव लारिसा के पति थे. एक और फिल्म, ईरानी, देखकर लाजवाब हुआ, यहां भी मज़ेदार है कि बहराम बेज़ई के नाम से भी नहीं ही वाक़िफ था. एकदम दुलरिनी फ़िल्म है ''बाशु..''.
हाल में दो हिन्दी फ़िल्में भी देखीं. पहली को देखकर (हांफ और कांख-कांखकर) दांतों के बीच उंगलियां दबाई ही नहीं थीं, काट भी ली थी (शर्म से), आश्चर्य की बात दूसरी फिल्म देखकर ऐसी कांखने किम्बा लजाने की नौबत नहीं आई..