माईकेल मूर की 2009 में बनाई डॉक्यूमेंटरी, कैपिटलिज़्म अ लव स्टोरी. 2007 से 2010 के बीच अमरीका की अर्थिक मन्दी, वित्तीय संकट और पूँजीवाद के सड़ांध की विश्लेषणात्मक टिप्पणी दिखाता ये फिल्म उद्वेलित करता है.
हमारी यह समझ कि जिन विकसित देशों में शिक्षा और संपदा एक मोटे तरीके से लगभग अंतिम व्यक्ति तक- पूरे तौर पर नहीं भी लेकिन बुनियादी ज़रूरातों की हद तक कम से कम- पहुँच पा रही हो (शायद उन्हीं वजहों से वहां विकास संभव हुआ होगा ऐसा सोचना बेवकूफी नहीं ), उन समाजों में व्यक्तिगत लोभ उस पतनशील नीचाई तक नहीं पहुँचेगा जहाँ समाजिक सरंचना के बुनियादी तत्व खतरे में पड़ें. माईकेल मूर इस भोली समझ को झटके से तोड़ते हैं. जुवेनल चाईल्डकेयर के भ्रष्टाचारी मसले हों या फिर वाल स्ट्रीट कसीनो की कहानियाँ या फिर कम्पनियों द्वारा जीवन बीमा के खेल या होम फोरक्लोज़र्स की विदारक कहानियाँ. अंग्रेज़ी का एक शब्द है ऐवरिस, लोभ.
पूरी फिल्म देखते बार बार ये एहसास होता है कि इंसानी फितरत क्या सिर्फ इतनी है? फिल्म के एक सिक्वेंस में पूछा जाता है, डिफाईन रिच, जवाब आता है- फाईव मेन. तो यही है कहानी, चाहे किसी भी देश की हो, किसी भी राजनैतिक तंत्र की या फिर किसी भी सामाजिक पद्धति की.
इसी सिलसिले में हॉब्सबॉम का यह इंटरव्यू भी गौरतलब है, जहाँ वो कहते हैं: “The basic problems of the 21st century would require solutions that neither the pure market, nor pure liberal democracy can adequately deal with. And to that extent, a different combination, a different mix of public and private, of state action and control and freedom would have to be worked out.”
क़ुछ नाटकीय अदाबाजियों के बावज़ूद मूर की फिल्म में एक किस्म का भोला निर्दोषपना है जहाँ टेढे मसले और बीहड़ आर्थिक जटिलताओं को साफ सरल तरीके से दर्शकों तक पहुँचाया जाता है और मूर फिल्म के अंत तक दर्शक को अपना भागीदार बना लेने में सफल होते हैं. अंतिम दृश्य में क्राईम सीन की पीली पट्टी लगाते मूर दर्शकों को कहते हैं कि उन्हें दर्शकों का साथ चाहिये, उन सबों का जो थियेटर में ये फिल्म देख रहे हैं. ये फिल्म इसी चेतनता को पाने के लिये देखनी चाहिये. अपने समय की सच्चाई का एक छोटा टुकड़ा क्योंकि सिर्फ इतनी कमियाँ इतना ही भ्रष्टाचार है, सोचना भी किसी भोली नासमझ दुनिया का वासी होना है. ये सिर्फ टिप ऑफ द आईसबर्ग है.