अब्बास क्यारोस्तामी की डॉक्यूमेंट्री ‘एबीसी अफ्रीका’ नयी फ़िल्म नहीं है (2001 में बनी थी, उसके बाद से वह सात और फ़िल्में सिरज चुके हैं, कोई फ़िल्मकार इससे ज़्यादा प्रॉलिफिक और क्या होगा?).. मगर एबीसी अफ्रीका की खासियत इसका डिजिटल फॉरमेट (मिनी डीवी) में शूट किया होना है, तो इस लिहाज़ से क्यारोस्तामी के स्तर के निर्देशक की हम यहां दूसरे किस्म की सक्रियता को देखने का सुख पाते हैं..
यूगांडा के एआईडीएस पीड़ित परिजनों के अनाथ बच्चों की मदद करनेवाली अंतर्राष्ट्रीय एजेंसी के सहयोग से बनी फ़िल्म अभागे बच्चों की इसी दुनिया में घूमती है, लिटरली; कुछ ऐसा, इतना ही सरल फ़िल्म का ढांचा है: बीच-बीच में पीछे छूटती सड़कों का भव्य, अनूठा लैंडस्केप है, और फिर नाचते, ठुमकते, कैमरे के आगे आ-आकर मुंह बिराते बच्चों की हुड़दंग है.. ओर-छोर तक फैली गरीबी, असहाय सामाजिक लोक व उसमें असहाय कभी भी आते रहनेवाली मृत्यु का अनाटकीय डॉक्यमेंटेशन है.
एबीसी अफ्रीका व उसके प्रति क्यारोस्तामी के नज़रिये के बारे में दिलचस्पी रखनेवाले तत्संबंधी सामग्री यहां और यहां पढ़ सकते हैं.
6/18/2008
6/16/2008
जाने वो कैसे लोग थे..
कंधे पर महंगा शॉल और जाने कौन मनीष-मलंग-कलंग मल्होत्रा स्टाईल के फूल-तारों वाली बुनकारी का कुरता धारे रितुपोर्नो घोष और करीयर में उजियारे हो रहे संजय-ओहो कला-भयी-मूर्तिमान-भंसाली के डिज़ाइनर क्लोथ्स के बनियाई आज के समय में पैरों में स्लीपर डाले वेनिस में मंच पर लियोने दोरो लेने चढ़े तारकॉव्स्की, या सनकियाये फेल्लिनी या बौद्धियाये घटक की कल्पना कितना असंभव लगती है. आज यह लोग होते तो फ़िल्म बना रहे होते, या एनडीटीवी पर ‘गुड लाइफ’ व ‘टाइम्स’ के टीप्स दे रहे होते? ऐसी सनक व सृजनयात्राओं की समाज व समय में जगह बची है? नहीं बची है तो वह दीवाना करनेवाला सिनेमा बचा रहेगा? क्योंकि फ़िल्म जो हो, नाइके के जूतों और एक चिकन हॉट डॉग की तरह ज़रा सा तृप्त कर ले, ऐसा मनोरंजन मात्र तो है नहीं.. उसे पगलई की खूराक चाहिए.. इन्हीं पगलहटों के बीच एक फेल्लिनीलोक का बुनना संभव होता है.. सवाल है समाज व समय को ऐसे फेल्लिनीलोक की अब कोई ज़रूरत बची है?.. लायंस ऑव पंजाब प्रेज़ेंट्स के लिखवैया अनुबव पाल की इस दिलफ़रेब कसकों पर एक नज़र फेर लीजिये..
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