6/02/2007

मेट्रो का दिल और दिमाग: दो

‘मेट्रो’ के किरदार भी पूरी फ़ि‍ल्‍म में पानीपूड़ी और बड़ापाव खाते नहीं, मगर भरम बना रहता है. शायद अगले किसी क्षण खा लें ऐसा. लोकल ट्रेन दिखती रहती है. भायंदर और विक्रोली नहीं मगर वाशी और पनवेल की चकमक स्‍टेशनों को भी मुख्‍यधारा की सिनेमा में ले आने के लिए अनुराग बसु की तारीफ़ होनी चाहिए. हो ही रही है. लड़कियां सिसकारी भर रही हैं- ‘ओह, माई गॉड, दे रियली डू लुक लाइक द ट्रेन्‍स वी रेगुलरली ट्रेवल इन!’ आजतक जो ट्रेन में सिर्फ़ इसीलिए चढ़ते रहे कि चलती ट्रेन से छलांग लगाकर दर्शकों को हतप्रभ कर दें (यादों की बारात), डकैतों को ढेर (शोले) या जलती ट्रेन के मुसाफिरों को बचा लें, उस धर्मेंद्र को अचानक अनुराग बसु बारह लोगों से घिरे प्‍लेटफॉर्म पर दिखाकर लड़कियों का दिल जीत लेते हैं. धर्मेंद्र को अस्‍पताल की सीढ़ि‍यों पर भी बिठा देते हैं.. धर्मेंद्र की नाटकीयता से एक कदम आगे जाकर ज़ि‍न्‍दगी में पहली दफे शाइनी आहूजा को सीधे लोकल के अंदर खड़ा कर देते हैं, बाजू में खड़ी शिल्‍पा शेट्टी हिचकोलों में कभी भी उनपर गिर पड़ेगी ऐसा लगता ही नहीं, गिर भी पड़ती है! ऐसा न हो कि ऑडियेंस अभी भी कनेक्‍ट करने से छूटी रह जाए, फ़ि‍ल्‍म के क्‍लाइमैक्‍स में इरफ़ान ख़ान घोड़ा दौड़ाते हुए जगर-मगर स्‍टेशन में घुसे आते हैं.. और घोड़ा बिचारा तो रह जाता है मगर वे खुद, लड़कियों के चेहरों पे मुस्‍की लाते हुए, लेडीज़ कंपार्टमेंट के सीधे अंदर तक दाखिल हो लेते हैं.. एक मुख्‍यधारा सिनेमा में अब इससे ज्‍यादा यथार्थ किसी को क्‍या चाहिए? फिर क्‍या वजह है कि हम पजामे से बाहर होने को इतना आतुर हो रहे हैं?..

‘मेट्रो’ के खुलते ही (अभी टाइटल्‍स शुरू भी नहीं हुए) दर्शक को मुंबईया अफरातफरी की झांकी मिलने लगती है.. रिमझिम फुहारों वाली बारिश हो रही है.. इंट्रोड्यूस कराये जा रहे किरदार इंट्रोड्यूस होते ही बताने लगते हैं कि शहर में समय की कितनी मारामारी है और वे भीगते मौसम में भी कितनी चिंतायें ढो रहे हैं और मोबाइल पर बात करने से बच नहीं पा रहे.. माने यथार्थ शुरू हो जाता है. दूसरा यथार्थ हम ये देखते हैं कि छोटे शहर का लुंपेन इरफ़ान का कैरेक्‍टर मोंटी जो मुंबई में आकर एक ठीक-ठाक नौकरी में सेट हो गया है, कैसे उसकी लुंपेनई गई नहीं है और वह रिक्‍शे में बैठा आजू-बाजू गुजरते दूसरी रिक्‍शा सवार बालाओं की पिंडलियों व जांघों के गुदाज़पने की झांकियां लेता सुखी हो रहा है.. बारिश में छाते के नीचे इंतज़ार करते हम एक और नौजवान को देखते हैं जो अपनी ऑफिस की सहकर्मी कन्‍या की संगत की खातिर अपना छाता फेंक हंसता हुआ उसके छाते में घुस लेता है.. फिर तीन (हमारे एक मित्र के शब्‍दों में) वनमानुष किस्‍म के रॉकर्स हैं जो छूटते ही कभी भी गिटार टिनटिनाने और झुरझुरी जगाते, देह हिलाते अपने समय और शहर को परिभाषित करते हिनहिनाने लगते हैं..

फिर धीरे-धीरे खुलता है कि जिसकी छतरी के नीचे घुसकर नौजवान लड़की का दिल जीतना चाहता था वह लड़की दरअसल उसके बॉस के साथ भाग-भागकर सोती रहती है.. और चूंकि नौजवान लड़की के साथ-साथ शहर भी जीतने आया है (मुंबई में मॉर्निंग वॉक करने नहीं, जैसा वह खुद कहता है) तो लड़की के बॉस के साथ सोने के लिए बॉस को अपने फ्लैट की चाभी भी वही मुहैय्या करवाता है.. चूंकि वह जल्‍द तरक्‍की का भूखा है, लगता है वह ऑफिस के हर चौथे आदमी को किसी न किसी के साथ अपने फ्लैट में सुलवाने की दलाली कर रहा है.. तो एक सिलसिला-सा बन जाता है.. सब कहीं न कहीं कुछ पाना चाह रहे हैं.. ज्‍यादातर लड़कियों के साथ सोना चाह रहे हैं.. सो भी ले रहे हैं मगर सुखी नहीं हो पा रहे हैं.. बेचैनी का अजीब मुंबईया यथार्थवादी तनाव तना-तना-सा बना रहता है.. और बीच-बीच में वनमानुष कूद-कूदकर इस महानगर में ‘ज़ि‍न्‍दगी कैसी है पहेली, हाय..’ की सामयिक व्‍याख्‍या करते रहते हैं.. तो ये है अनुराग बसु के ‘मेट्रो’ का दिल.. उससे ज्‍यादा कुछ नहीं है.. विशुद्ध चिरकुटई और एम्‍बैरेसिंग नंगई है.. कुशवाहा कांत व प्रेम वाजपेयी छाप डायलाग और एकता कपूर टाइप तड़फड़ाहटें हैं.. यथार्थ नहीं है. हवा में लटके वाशी या पनवेल या पता नहीं किस दुनिया के लोग हैं, यथार्थ जो है वह तेल लेने गई है.. और ले के पूरी फ़ि‍ल्‍म में आप सोचते रहते हैं अब शायद लौट आए, लौटती नहीं है!..

यह तो हुआ अनुराग बसु का दिल.. यथार्थवादी दिमाग कहां है? दिमाग इसमें है कि बिली वाइल्‍डर की एक पुरानी काली-सफ़ेद फ़ि‍ल्‍म ‘द अपार्टमेंट’ और हाल के वर्षों की एक अंग्रेजी फ़ि‍ल्‍म ‘लव एक्‍चुअली’ से वह चांप-चांपकर चोरी करती है.. और फिर चोरी ही नहीं करती, उस चोरी को दो कौड़ी के टेलीविज़न सोप में बदलकर यह भी अपेक्षा करने लगती है कि आप उसकी बौद्धिकता पर वाह-वाह भी करें..

ढाई घंटे की फ़ि‍ल्‍म में कुल जमा सात मिनट से अलग बंबई का कोई यथार्थ नहीं है.. टूरिस्टिक पोस्‍टकार्ड्स हैं.. जिसे देखकर ढेरों भले बेवकूफ़ भागे-भागे मुंबई चले आएंगे.. और यहां आने के बाद असली शहर देखकर वे अपना सिर और अनुराग बसु दोनों को पीटने के लिए मचलने लगेंगे!..

एक बात यहां और साफ़ करते चलें.. मैं कोई पैरेलल सिनेमा या प्रकाश झा टाइप रियलिज़्म का यहां केस लेकर नहीं बैठा हूं.. और न ही सिनेमा यथार्थ की कोई डॉक्‍यूमेंट्री होती या होनी चाहिए.. मगर सिनेमा के मार्मिक होने का इतना तकाज़ा ज़रूर बनता है कि अपनी कथा और शिल्‍प के मनोरंजन से वह यथार्थ के परतदार पेचीदेपने के बारे में आपकी समझ खोले.. आपके साथ एक रोचक संवाद स्‍थापित करे.. ‘मेट्रो’ ऐसा कुछ भी नहीं करती.. दो कौड़ीयों के स्‍तर पर भी नहीं करती.

दरअसल बदलते समय में पुराने बंबईया फ़ार्मूलों के चुक जाने के बाद अब यथार्थ को दिखाने का भी यह जैसे कोई नया फ़ामूर्ला बन गया है.. जिसका यथार्थ कुछ वैसा और उतना ही है जैसे कोई रामलाल या मिश्रीचंद बिसमिल्‍ला ख़ान से शहनाई की शिक्षा लेकर ट्रंपेट से हिमेश रेशमिया की धुन ठेलने लगें. वह संगीत की अदा होगी; संगीत तो नहीं ही होगा. अनुराग बसु की ‘मेट्रो’ भी अदाओं से गजबजाई हुई है, जो संगीत है वह सिर्फ़ वनमानुषी शोर है.

5 comments:

Yunus Khan said...

आपने बिल्‍कुल सही कहा है । मेट्रो एक कागजी फिल्‍म है । गुलशन नंदा वाला कागजी एटीट्यूड है इसमें । और सोशल ईवनिंग्‍स में भाई लोग इसकी प्रशंसा करके खुद को प्रबुद्ध साबित कर रहे हैं । करण जौहरों और यश चोपड़ाओं की दुनिया ने सिनेमा को पलायन वादी बनाकर रख दिया है । अफसोस ये है कि रिषीकेश मुखर्जी वाला मिडिल ऑफ द रोड सिनेमा भी अब ग़ायब हो गया है । हां भेजा फ्राई और चीनी कम वाला मल्‍टीप्‍लेक्‍स सिनेमा जरूर आया है पर उससे भी मुझे कोई खास क्रांति की उम्‍मीद नहीं है ।

Sajeev said...

फिल्म इतनी बुरी भी नही है..... इरफान का काम बहेद अच्छा है... फिल्म का संगीत भी मुझे अच्छा लगा ... आज के दौर की सच्ची तस्वीर है

v9y said...

कोशिश रहती है कि जो फ़िल्म जल्दी ही देखनी है उसकी समीक्षा पढ़ने-सुनने से बचूँ. इसलिए ये थोड़ी देर से बाँचा. कल देखी. कुछ दो-चार बातें बेतरतीब अपने ब्लॉग पर रखी हैं, देखिएगा.

Anonymous said...

kuchh tathakathit logon ke dimaag mein peace aur khushi ka matalab sirf sex hi hota hai. Dar asal anurag basu ne jo bhi dikhaya hai vah sampoorn roop se galat tao nahi lekin poora sach bhi nahin hai. Asal mein luchh % sach ko poora sach ka roop diya gaya hai. Kya hum filmkar sex ke alava kucc aur nahi soch sakte? sex ko itnaa sasta bhi nahi banana chahiye. promod ji no sahi likha hai ki sex pa lene ke baad bhi vao characters santusht nahi hai. Lagbhag yahi maansik stithi hamre iflmkaron ki bhi hoti jaa rahi hai.

Anonymous said...

aakhir kis tarah ki film ki ummid kar rahe hain aap ek nirdeshak se jise apni film bhi chalani hai aur paise bhi kamane hain? dodno cheezon ko sadhne ke liye kuch to samjhaute karne hi padenge. har film mile stone nahi ho sakti par metro ek thik thak film hai jo kuch cheezen to deti hi hai jaise- acchi acting, achcha nusic aur achche gane
har director kurasova nahi ho sakta.
aur haan, metro ke chabhi wale prasang Ranjit kapoor nirdeshit "shart cut" natak se uthaye gaye hai jise NSD me bahut baar manchit kiya gaya hai.