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1/31/2008

संडे

वर्ष: 2008
भाषा: हिंदी
लेखक: रॉबिन भट्ट और जाने कौन-कौन
डायरेक्‍टर: रोहित शेट्टी
रेटिंग: ?

चिरकुटई की कोई सीमा होती है? बहुत बार हिंदी फ़ि‍ल्‍म देखते हुए लगता है नहीं होती. संडे देखते हुए कुछ ऐसी ही विरल अनुभूति हुई. सिनेमा हॉल में मालूम नहीं कितने अभागे (या सुभागे?) थे, छूटे हुए पटाखों की तरह हीं-खीं हंस रहे थे. मुंह ही से हंस रहे थे. हमें समझ नहीं आ रहा था कैसे और कहां से हंसें.. कस्‍बाई शादियों के बारात में दलिद्दर ऑर्केस्‍ट्रा के लौंडे हाथ में माइक थामे जो रोमांचकारी मनोरंजन मुहैय्या करवाते हैं, कुछ वैसा ही आह्लादकारी मनोरंजन रोहित शेट्टी की यह फ़ि‍ल्‍म ठिलठिला रही थी. डायरेक्‍टर के आदर्श काफी कॉस्मिक ऊंचाइयों को छूते कभी अब्‍बास-मुस्‍तान तो कभी अनीस बज़्मी जैसी उन्‍नत प्रतिभाओं के पीछे दौड़ती कला, कौशल और कॉमर्स की नयी मंज़ि‍लें तय करती रहती है. डायरेक्‍टर और संडे लिखनेवालों की कल्‍पनाशीलता की ही तरह अजय देवगन की एक्टिंग भी लगातार दंग करती रहती है. चेहरे पर ऐसी-ऐसी सूक्ष्‍म अनुभूतियां आती हैं कि आदमी सोचने पर मजबूर हो जाये कि भई, भावप्रवण अभिनय का यह चरम तो सुनील शेट्टी के चेहरे पर कहीं ज्यादा इंटेंसिटी से एक्‍सप्रेस होता है! फ़ि‍ल्‍म के लगभग सभी ही डिपार्टमेंट ऐसी ही सूक्ष्‍म और उन्‍नत कलात्‍मक भागदौड़ मचाये रहते हैं.. आपका दिमाग उन्‍नत हो तो आप सीट पर बैठे-बैठे दौड़ते हुए वैसी ही उन्‍नतावस्‍था की हींहीं-ठींठीं में अपने दो घंटे सार्थक कर सकते हैं.. हमारी तरह फंसी दिमाग के मालिक हों तो फ़ि‍ल्‍म देखने से बचिये क्‍योंकि संडे आपकी नाक में दम कर सकता है.. नाक ही नहीं शरीर के अन्‍य हिस्‍सों की फंक्‍शनिंग भी दुलम कर सकता है..