9/18/2021

मध्‍यांतर

एक फ़िल्‍म पर कुछ लिखना चाह रहा था, मगर माथे में ताक़त नहीं बन रही। शायद कुछ दिनों में बने तब लौटूंगा द नेस्‍टपर। फ़िलहाल नेटफ्लिक्‍स की अनकही कहानियांकी तीन कहानियों में से बीच की एक कहानी की ओर उंगली पकड़कर आपको ले चलने की कोशिश करता हूं। कहानी पुरानी, 1986 की लिखी है, 2018 में कन्‍नड से अंग्रेजी में अनुदित जयंत कैकिनी की कहानियों को डीसीबी पुरस्‍कार से पुरस्‍कृत किया गया था, किताब का शीर्षक है, ‘’नो प्रसेंट प्‍लीज़’ (एक उपशीर्षक भी है, ‘मुंबई स्‍टोरीज़’), किताब में काफ़ी मज़ेदार कहानियां हैं, उस लिहाज़ से अभिषेक चौबे ने मध्‍यांतरनाम की जिस कहानी को अपनी फ़िल्‍म के लिए चुना है, वह अपेक्षाकृत कुछ ढीली और कमज़ोर कहानी है, मगर इसलिए भी अभिषेक की तारीफ़ की जानी चाहिए कि उन्‍होंने अपनी स्क्रिप्‍टिंग, सिनेमाकारी से उसमें एक भरा-पूरापन, एक ज़िंदा ऊर्जा भर दी है। महानगर के उपनगरीय जीवन की बदहाल, असंवेदन उदास संसार में सपनों को सहेजने के कोमल तिलिस्‍म को रिंकी राजगुरु का चेहरा अपनी मार्मिकताओं में निखारता चलता है। खुद को हीरो-हिरोईन की कल्‍पनाओं में बहलाने की चार-पांच मिनट की अदाबाजियां हैं, अदरवाइस कहानी के पैर कायदे से ज़मीन पर बने रहते हैं। 'अनकही..' की बाकी दोनों कहानियों पर कुछ नहीं कहुंगा, मगर मौका लगे तो बीच की मध्‍यांतरदेख डालिये।

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