एक फ़िल्म पर कुछ लिखना चाह रहा था, मगर माथे में ताक़त नहीं बन रही। शायद कुछ दिनों में बने तब लौटूंगा ‘द नेस्ट’ पर। फ़िलहाल नेटफ्लिक्स की ‘अनकही कहानियां’ की तीन कहानियों में से बीच की एक कहानी की ओर उंगली पकड़कर आपको ले चलने की कोशिश करता हूं। कहानी पुरानी, 1986 की लिखी है, 2018 में कन्नड से अंग्रेजी में अनुदित जयंत कैकिनी की कहानियों को डीसीबी पुरस्कार से पुरस्कृत किया गया था, किताब का शीर्षक है, ‘’नो प्रसेंट प्लीज़’ (एक उपशीर्षक भी है, ‘मुंबई स्टोरीज़’), किताब में काफ़ी मज़ेदार कहानियां हैं, उस लिहाज़ से अभिषेक चौबे ने ‘मध्यांतर’ नाम की जिस कहानी को अपनी फ़िल्म के लिए चुना है, वह अपेक्षाकृत कुछ ढीली और कमज़ोर कहानी है, मगर इसलिए भी अभिषेक की तारीफ़ की जानी चाहिए कि उन्होंने अपनी स्क्रिप्टिंग, सिनेमाकारी से उसमें एक भरा-पूरापन, एक ज़िंदा ऊर्जा भर दी है। महानगर के उपनगरीय जीवन की बदहाल, असंवेदन उदास संसार में सपनों को सहेजने के कोमल तिलिस्म को रिंकी राजगुरु का चेहरा अपनी मार्मिकताओं में निखारता चलता है। खुद को हीरो-हिरोईन की कल्पनाओं में बहलाने की चार-पांच मिनट की अदाबाजियां हैं, अदरवाइस कहानी के पैर कायदे से ज़मीन पर बने रहते हैं। 'अनकही..' की बाकी दोनों कहानियों पर कुछ नहीं कहुंगा, मगर मौका लगे तो बीच की ‘मध्यांतर’ देख डालिये।
9/18/2021
9/10/2021
लघुकाय भेदकारी दिलदारियां
तीन फ़िल्मों की तीन रातें। बहुत देर और बहुत दूर तक आपकों फंसाये रहती हैं। जैसे अफ़ग़ानिस्तान पर आनंद गोपाल की 2015 की किताब। किताब पढ़ते हुए बार-बार होता है कि आप हाथ की किताब कुछ दूर रखकर सोचने लगते हैं। और देर तक सोचते रहते हैं कि इस दुनिया का हिसाब-किताब चलता कैसे है। या राजनीति का कूट संसार चलानेवालों को किसी गहरे कुएं में धकेलकर हमेशा-हमेशा के लिए उन्हें वहां छोड़ क्यों नहीं दिया जाता?
'फिरंगी चिट्ठियां, 2012’, बचपन की दोस्तियों की दिलतोड़ तक़लीफ़ों की मन में खड़खड़ाती आवाज़ करती, और फिर किसी घने, विराट छांहदार वृक्ष के दुलार में समेटती दुलारी फ़िल्म है। ‘अज़ोर, 2021’, अंद्रेयास फोंताना की पहली फ़िल्म। प्रकट तौर पर कोई हिंसा नहीं, मगर समूचे समय एक दमघोंट किस्म का तनाव आपको दबोचे रहता है। क्या है यह तनाव? यह अस्सी के दशक का अर्जेंटीना है। अंद्रेयास का काम घातक तरीके का दिलफरेबी सिनेमा है, जैसे 2019 की शाओगांग गु की चीनी फ़िल्म है।
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