जब आई थी तब, करीबन बीसेक वर्ष पहले, इटली की ‘बच्चों का चोर’ देखी थी, फ़िल्म अच्छी भी लगी थी, मगर फिर लगा कि यह ज़रा पारंपरिक किस्म की फ़िल्ममेकिंग है, कहानी का कोर और उसके गिर्द भावलोक की सघन बुनावट वाली मेकिंग, ऐसी फ़िल्में बहुत देखीं, अब रहने दिया जाये. तो इस तरह रहने देने में फिर ज्यान्नी एमिल्यो छूटे रहे. पिछले वर्ष फिर कुछ संयोग हुआ, और शायद इसलिए भी हुआ कि फिल्म की मुख्य भूमिका में सेर्ज्यो कास्तेल्लित्तो थे, और मुझे निजी तौर पर अच्छे लगते हैं, ‘खोया तारा’ को देखना हुआ. और एम मध्यवर्गीय इतालवी आंखों से समसामयिक चीन के औद्योगिक कस्बाई लैंडस्कैप के जो नज़ारे फिल्म दिखाती चलती है, और फीकी उदासियों का जो वह दिलतोड़ संसार बनता चलता है, उसे देखते हुए फिर जिया झ्यांग्के के ‘स्टिल लाइफ़’ की सहज याद हो आई..
इस लजीज़ अनुभव के बावज़ूद बाबू एमिल्यो साहेब छूटे रहे. अभी फिर दसेक दिनों पहले हुआ कि एक के बाद एक उनकी तीन फिल्में छापीं, ‘लमेरिका’, ‘ऐसे हंसते थे’ और कामू के असमाप्त उपन्यास पर आधारित, इतालवी नहीं, फ्रेंच में, ‘पहला आदमी’.. और तीनों के ही आनंद में धनी हुए..
यह भी समझ में आया कि पारंपरिकता सीमा नहीं है, अगर आप अपने जुड़ाव और सादगी के महीनी में मोहब्बत और भरोसे से जुटे रहते हो. फिर यह भी फर्क़ नहीं पड़ता कि आप अपनी कहानी अल्बानिया के फटियारेपनों में घुमा रहे हो, या सिसिलियन आप्रवासी मजूरों के उत्तरी इटली से संबंधों की आड़ी-तिरछी त्रासदी का खाका, एक अनपढ़ बड़े और पढ़ाई कर रहे छोटे, दो भाइयों की उलझनों और तकलीफ़ों की मिली-जुली बुनावट में कह रहे हो.. या कामू के अजीज़ अल्जीयर्स को धीमे-धीमे, बिना किसी अतिरंजित नाटकीयता के, त्रासद सिम्फ़नी की तरह खोल रहे हो..
ब्रावो, ज्यान्नी!
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