इस क़यास के अब क्या मायने कि ज़ीनत और ज़ाहिदा की नज़रों से खुद को देखने से अलग, देव साहब ने रोस्सेलिनी और दी सिका की फ़िल्में कभी देखी थी या नहीं. करीयर की शुरुआत के साथी गुरुदत्त के काम को ही कितना, किन नज़रों से देखते रहे थे, और ‘गाइड’ के सेट पर वहीदा से कभी कैज़ुअली पूछा था या नहीं कि “वहीदा, माई स्वीटहार्ट, मगर क्या ज़रुरत थी गुरु को ‘ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है’ जैसे नेगेटिव लिरिक्स रफ़ी साब से गवाने की? 'लाख मना ले दुनिया, साथ न ये छूटेगा' नहीं गवा सकते थे? द वर्ल्ड नीड्स पॉज़िटिव एनर्जी, यू सी?” हो सकता है न पूछा हो. हो सकता है ‘वहीदा, माई स्वीटहार्ट’ कहने के बाद उदयपुर के महाराजा की भलमनसी और लंदन की सुरमई सांझों की याद में जाम पीते रहे हों, गुरुदत्त का एक मर्तबे ज़िक्र तक न किया हो. हो सकता है देव साहब ने ‘क़ागज़ के फूल’ देखी भी न हो.
कौन थे देव साहब? क्या राजू गाइड उन्हें जानता था? छोटा भाई विजय आनंद तो उन देव साहब को नहीं ही जानता था जो टैड दानियेलेव्स्की और पर्ल बक के साथ नारायण की किताब ‘गाइड’ की एक अमरीकी खिचड़ी तैयार करने के बाद उसके एक हिंदुस्तानी ऑमलेट की तैयारी में (मदद के नाम पर) गोल्डी को ‘उलझाना’ चाह रहे थे. बाद में ‘गाइड’ का हिंदी वर्ज़न बना तो टैड और बक के पीछे-पीछे शामिल बाजा, सैंडविच होने के बिना, और विजय आनंद की अपनी शर्तों पर बना, क्योंकि देव साहब के रास्तों पर सिर्फ़ देव साहब ही चल सकते थे, वह बंशी और किसी से न बज सकती. वह फ़िल्म तो कतई न बन सकती जो कोई विजय आनंद बनाना चाहता. सन् सत्तर में ‘प्रेम पुजारी’ से शुरु करके सन् ग्यारह के ‘चार्जशीट’ तक के चालीस वर्षों में लगभग बीस फ़िल्मों का निर्देशकीय सफ़र निपटा चुके देव साहब का उत्साह बेमिसाल और लाजवाब है, मगर उस यात्रा के पीछे के व्यक्ति को समझना टेढ़ी खीर है, सबके बस की बात नहीं. शायद गोल्डी आनंद के बस की भी न रही हो. संभव है ‘स्वामी दादा’ और ‘अव्वल नंबर’ के आस-पास कभी हाथ जोड़ कर गोल्डी तक ने माफ़ी मांग ली हो कि “अब मैं आपकी फ़िल्में नहीं देख सकता, सॉरी,” और उन्नीस सेकेंड के गंभीरतम पॉज़ के बाद इतना और जोड़ा हो, “और हां, देव साहब, बुढ़ापे में अब जाकर यह बात समझ आई, कि मैं आपको कभी जान नहीं सका, हू आर यू?”
यह अंतिम पंक्ति गोल्डी आनंद ने नहीं कही थी, मेरी कल्पना मुझसे कहलवा रही है. क्योंकि ‘गैंगस्टर’, ‘मैं सोलह बरस की’, ‘सेंसर’, ‘लव एट टाईम्स स्क्वॉयर’, ‘मिस्टर प्राइम मिनिस्टर’ (और देव साहब का बस चलता तो लंदन और न्यूयॉर्क से जाने अभी क्या-क्या शूट करते होते, इंटरनेट के दौर में वह अनंतकाल तक हमारी आंखों के आगे उतरता, तैरता रहता) के बाद सवाल रह ही जाता है कि कौन थे देव साहब? राजू गाइड तो उन्हें नहीं ही जानता था, गोल्डी आनंद भी नहीं जानते थे, फिर किशोर साहू, सचिन दा, ज़ाहिदा, ज़ीनी बेबी कौन जानता था उन्हें? पत्नी कल्पना कार्तिक जानती थी? पुत्र सुनैल आनंद? ग्रैगरी पेक, सुरैया, एनीवन, एनीबडी? वॉज़ देव साहब रियल? आई मीन रियली, रियल?
हमारे घर में देव साहब को कोई नहीं जानता था. जबकि देवानंद की बात एकदम अलग थी. चचेरी, ममेरी, फुफेरी बहनें ही नहीं, उनकी मम्मियां, मामा, हमारे स्कूल के पीटी टीचर से लेकर होम साइंस की आंटी और हमारे साइकिलों का पंचर पीटनेवाला नंदू, सब नाक-भौं बनाने की घटिया एक्टिंग (देवानंद की ही तरह) कितनी भी क्यों न करते रहे हों, मन ही मन सब देवानंद को पसन्द करते थे. रस्सी पर सूखने के लिए साड़ी डालते हुए कोई भी मौसी गाने लगती ‘दिल पुकारे, आ रे आरे आरे?’ आंखों में प्रेम के डोरे लहराती मौसी का देवानंद को पुकारना मौसों, चाचाओं और उनके भैयों को उलझन व तनाव में नहीं लपेटता था. सब जानते होते देवानंद को गुहारने में एक निर्दोष हंसी की निर्दोष कामना होती, कोई 'संसारी' स्वार्थ न होता, ‘फूल और पत्थर’ के धर्मेंदर की दैहिक ताप और ‘दिल एक मंदिर’ के राजिंदर कुमार की आंसू-बहावक भाप न होती. ‘अरे यार मेरे तुम भी हो ग़ज़ब’ और ‘शोखियों में घोला जाये थोड़ा-सा शबाब’ गाते हुए, गाल में हल्की दरार दिखाकर देवानंद ज़रा-सा हंस देते, मौसियों का मलिन फ़ीकापन, दिन, संवर जाता, ऐसे मीठे और इतनी ज़रा-सी ही तो उम्मीद थे देवानंद. मेले में मां की गोद के बच्चे को दीखे दूसरे बच्चे के हाथों लाल गुब्बारे की तरह. उसके बियॉंड सब जानते पैरों पर लंबे हाथ गिराये, ज़रा-सा कंधा उचकाये, उतरती ढलान पर ‘आज की सारी रात जायेगी, तुमको भी कैसे नींद आयेगी’ गुनगुनाते देवानंद एक छोर से भागते दूसरे छोर निकल जायेंगे, ‘खोया-खोया चांद’ और ‘खुले आसमानों’ का मोहक ख़्याल बचा रहेगा, गाने और देवानंद की चमकती, निर्दोष बहक गुज़र जाने की खाली जगह में उसके बाद कोई वास्तविक प्रेम और उसके निटी-ग्रिटी सोर्ट आउट करता वास्तव का प्रेमी- ‘आवारा’ का राज कपूर, या ‘देवदास’ का दिलीप कुमार-सा ही सही- नहीं होगा.
शायद इसीलिए सब, और अवचेतन में बहुधा बिना-जाने- और राज कपूर और दिलीप कुमार की बनिस्बत कहीं ज़्यादा- देवानंद को प्यार करते थे. क्योंकि देवानंद के होने में एक साफ़-सुथरी हंसी के आश्वासन से अलग समय और समाज की पेचिदगियों की कोई मांग न होती. समय और समाज में ‘जीने की तमन्ना’ को निरखती, सिरजती रोज़ी को कनखियों में सराहता राजू हमेशा निष्पाप और बहुत सच्चा लगता, हां, एक केले की भूख में चेहरा मरोड़ते उसे देखते ही मगर दर्शक जान जाता देवानंद भूखा होने की एक्टिंग कर रहा है. वास्तविक कैसी भी परिस्थिति में प्लेस होते ही देवानंद एकदम सहजता व आसानी से अवास्तविक हो जाते, जबकि ‘ओ मेरे हमराही, मेरी हाथ थामे चलना, बदले दुनिया सारी, तू ना बदलना’ में पक्का भरोसा होता कि देवानंद हमेशा हाथ थामे होंगे, उनकी हंसी कभी नहीं बदलेगी. यही, इतना देवानंद का चार्म था. उनकी विशिष्टता, उनका अनूठापन. वह अपनी हिरोइनों को सच्चे आशिक की तरह बराबरी की संगत देते थे, 'आवारा' के राजू की तरह कभी अपनी नर्गिस के बाल खींचकर मोहब्बत का इसरार न करते, किसी दु:स्वप्न में भी नहीं, न 'पत्थर के सनम, तुझे हमने खुदा जाना' का शिकायती शोर उठाते, दिल टूटता तो हाथ में जाम लिये दबी आवाज़ गुनगुनाते 'दिन ढल जाये, रात न जाये', और गा चुकने के बाद धुले चेहरे के साथ बाहर आते तो 'तीन देवियां' की नंदा ही नहीं, कल्पना और सिमी सब यक़ीन करतीं कि देवदत्त उनका और सिर्फ़ उन्हीं का है.
देवानंद उतना ही रियल थे जितना रियल टिनटिन है, जैसे एक पूरी पीढ़ी के लिए एल्वीस प्रेस्ली का होना, उस रोमान में नहाये, जीवन जीना हुआ. इस मायने में वे शायद भारतीय सिनेमा के अकेले, अनूठे मिथकीय सुपरस्टार साबित हों. अलबत्ता ‘हम एक हैं’ से ‘चार्जशीट’ के देव साहब की कहानी कहीं ज़्यादा टेढ़ी है, मगर जैसा मैंने पहले कहा ही, देवानंद को प्यार करनेवाले ढेरों लोगों को मैं जानता हूं, देव साहब को कौन जानता है?