चिरकुट भावुक नौटंकियों से अलग सिनेमा में अब भी उम्मीद है? बहुत ऐसे मौके बनते हैं? और बनते हैं तो हमें देखने को कहां मिलते हैं? मगर कल देखने को मिला और देखते हुए हम धन्य हुए. सतासी मिनट की इज़राइली फ़िल्म ‘द बैंड्स विज़िट’ बड़े सीधे लोगों की बड़ी सीधी-सी कहानी है. फ़िल्म का डिज़ाईन भी सरल व कॉमिक है, मगर इसी सरलता में बड़ी ऊंची व गहरी बातें घूमती रहती हैं. ओह, मन तृप्त हुआ..
मिस्त्र से एक नये अरब संस्कृति केंद्र के उद्घाटन के सिलसिले में इज़राइल पहुंचा अलेक्सांद्रिया सेरेमोनियल पुलिस बैंड के पुरनिया, सिंपलटन सिपाही अपनी बस से उतरने के बाद उत्साह में इंतज़ार कर रहे हैं कि उनकी अगवानी के लिए फूल लिये कोई दस्ता आयेगा. फूल तो क्या कोई बबूल लिये भी नहीं पहुंचता. ग्रुप के एक नौजवान सदस्य के भाषाई कन्फ़्यूज़न में दस्ता एक ऐसे सूनसान उजाड़ पहुंच जाता है जहां अरब हैं न संस्कृति. जगह ऐसी है कि रात गुजारने के लिए एक होटल तक नहीं. उस बियाबान में कुछ सीधे-टेढ़े स्थानीय चरित्र हैं, मजबूरी में जिनकी संगत में यह बेसुरा फूंक-फूंक के समय गुजारना है. और इस थोड़े से एक दिन के चंद घंटों के समय में ही उखड़े, बिखरे, बेमतलब हो गए लोगों की संगत में मानवीयता की हम एक प्यारी सी झांकी पा लेते हैं. यू ट्यूब पर फिल्म के ट्रेलर की एक झांकी आप भी पाइए. एरान कॉलिनिन की पहली फ़िल्म है. खुदा करे आगे भी वह ऐसी ही सरल व सन्न करते रहनेवाली फ़िल्में बनायें.
एरान कॉलिनिन से एक और इंटरव्यू..
2/17/2008
2/15/2008
मिथ्या
डाइरेक्टर: रजत कपूर
लेखन: रजत कपूर, सौरभ शुक्ला
कैमरा: राफे महमूद
साल: 2008
रेटिंग: **
मिथ्या के साथ एक बड़ा सच यह है कि फ़िल्म बड़ी ‘मीठी’ है. बेसिक कहानी व उसकी एब्सर्ड त्रासदी की बुनावट ऐसी है (एक एक्टर क्या करे जब उसका अभिनय ही उसकी पहचान खा जाये?) कि ढेरों कड़वाहट के मौके बनते हैं, लेकिन फ़िल्म उन कड़वाहटों में धंसती नहीं. बाजू-बाजू लुत्फ़ उठाती रहती है. डिटैचमेंट बना रहता है. तो मीठे के सुर का यह बेसिक कथात्मक बेसुरपना ही फ़िल्म का डिज़ाईन बनकर मिथ्या का बंटाधार कर देती है. बात समझ में नहीं आई? इससे ज़्यादा मैं समझा भी नहीं सकता. क्योंकि मिथ्या की मुश्किलों की इतनी ही समझ मेरी भी बन पा रही थी. लचर और ढीली फ़िल्म कहकर फ़िल्म से हाथ झाड़ लेने के आसान रास्ते पर मैं जाना नहीं चाहता. क्योंकि जिन्होंने रजत की दूसरी फ़िल्में देखी हों उनके रेफरेंस में फिर याद कर लेना चाहता हूं कि मिथ्या रजत की सबसे बेहतर फ़िल्म है- अपने क्राफ्ट पर कंट्रोल के लिहाज़ से. कहानी व उसे कहने के सुर का कंट्रोल नहीं है मगर शायद वह रजत की फिल्ममेकिंग है नहीं. आनेवाले समयों में भी दिखेगी, मुझे नहीं लगता.
सस्ते में स्मार्ट फ़िल्ममेकिंग का जो रजत ने एक खास स्टाईल इवॉल्व किया है, वह काबिले-दाद है. मिथ्या में वह काफी रिफांइड लेवल की है. छोटे-छोटे सिनेमेटिक इंडलजेंसेस हैं जो कभी उसे फ्रेंच कॉमिक फ़िल्मों के पज़लिंग लोक में उतार देते हैं, तो कभी फ़िल्म में हल्के से कोई ‘बुनुएलियन’ टच चला आता है. नेहा धूपिया जैसी सपाट एक्टर फ्रेंच मिस्टीक अक्वायर किये रहती है, यह अपने में अचीवमेंट नहीं लेकिन अम्यूज़िंग ज़रूर है. रणवीर को एक्टिंग करते देखना और देखते रहने से पूरी फ़िल्म में आप कभी थकते नहीं. इतने थोड़े समय में टीवी पर डीजेगिरी करते हुए रणवीर ने एक्टिंग में जो हाई जंप्स लिये हैं वह हिंदी फिल्मों के संदर्भ में सचमुच बड़ा अचीवमेंट है. छोटे रोल में विनय पाठक, ब्रिजेंद्र काला समेत बाकी एक्टरों को देखना भी कंटिन्युसली एंटरटेन किये रहता है. कहानी के लोचे हैं, अग्रीड, लेकिन वह रजत के साथ हमेशा रहेंगे, अदरवाइस मिथ्या वैसी मिथ्या नहीं है जैसी बॉक्स ऑफिस की खिड़की पर नज़र आ रही है.
सिर्फ़ कहानी देखने के लिए आप फ़िल्म देखनेवाले दर्शक न हों, और रजत की फ़िल्ममेकिंग में आपकी कुछ दिलचस्पी हो तो एक मर्तबा मिथ्या देख आइए. रेकमेंडेड.
लेखन: रजत कपूर, सौरभ शुक्ला
कैमरा: राफे महमूद
साल: 2008
रेटिंग: **
मिथ्या के साथ एक बड़ा सच यह है कि फ़िल्म बड़ी ‘मीठी’ है. बेसिक कहानी व उसकी एब्सर्ड त्रासदी की बुनावट ऐसी है (एक एक्टर क्या करे जब उसका अभिनय ही उसकी पहचान खा जाये?) कि ढेरों कड़वाहट के मौके बनते हैं, लेकिन फ़िल्म उन कड़वाहटों में धंसती नहीं. बाजू-बाजू लुत्फ़ उठाती रहती है. डिटैचमेंट बना रहता है. तो मीठे के सुर का यह बेसिक कथात्मक बेसुरपना ही फ़िल्म का डिज़ाईन बनकर मिथ्या का बंटाधार कर देती है. बात समझ में नहीं आई? इससे ज़्यादा मैं समझा भी नहीं सकता. क्योंकि मिथ्या की मुश्किलों की इतनी ही समझ मेरी भी बन पा रही थी. लचर और ढीली फ़िल्म कहकर फ़िल्म से हाथ झाड़ लेने के आसान रास्ते पर मैं जाना नहीं चाहता. क्योंकि जिन्होंने रजत की दूसरी फ़िल्में देखी हों उनके रेफरेंस में फिर याद कर लेना चाहता हूं कि मिथ्या रजत की सबसे बेहतर फ़िल्म है- अपने क्राफ्ट पर कंट्रोल के लिहाज़ से. कहानी व उसे कहने के सुर का कंट्रोल नहीं है मगर शायद वह रजत की फिल्ममेकिंग है नहीं. आनेवाले समयों में भी दिखेगी, मुझे नहीं लगता.
सस्ते में स्मार्ट फ़िल्ममेकिंग का जो रजत ने एक खास स्टाईल इवॉल्व किया है, वह काबिले-दाद है. मिथ्या में वह काफी रिफांइड लेवल की है. छोटे-छोटे सिनेमेटिक इंडलजेंसेस हैं जो कभी उसे फ्रेंच कॉमिक फ़िल्मों के पज़लिंग लोक में उतार देते हैं, तो कभी फ़िल्म में हल्के से कोई ‘बुनुएलियन’ टच चला आता है. नेहा धूपिया जैसी सपाट एक्टर फ्रेंच मिस्टीक अक्वायर किये रहती है, यह अपने में अचीवमेंट नहीं लेकिन अम्यूज़िंग ज़रूर है. रणवीर को एक्टिंग करते देखना और देखते रहने से पूरी फ़िल्म में आप कभी थकते नहीं. इतने थोड़े समय में टीवी पर डीजेगिरी करते हुए रणवीर ने एक्टिंग में जो हाई जंप्स लिये हैं वह हिंदी फिल्मों के संदर्भ में सचमुच बड़ा अचीवमेंट है. छोटे रोल में विनय पाठक, ब्रिजेंद्र काला समेत बाकी एक्टरों को देखना भी कंटिन्युसली एंटरटेन किये रहता है. कहानी के लोचे हैं, अग्रीड, लेकिन वह रजत के साथ हमेशा रहेंगे, अदरवाइस मिथ्या वैसी मिथ्या नहीं है जैसी बॉक्स ऑफिस की खिड़की पर नज़र आ रही है.
सिर्फ़ कहानी देखने के लिए आप फ़िल्म देखनेवाले दर्शक न हों, और रजत की फ़िल्ममेकिंग में आपकी कुछ दिलचस्पी हो तो एक मर्तबा मिथ्या देख आइए. रेकमेंडेड.
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