3/13/2007

अबला तेरी यही कहानी, एक आंख में ख़ून दूजे में पानी

डेढ महीना पहले ब्‍लॉग सीनरी में हमारी एंट्री कुछ उसी तरह हुई है जैसे सात साल घर में बेकार बैठे रहने के बाद कस्‍बाई कंस्‍ट्रक्‍शन परिदृश्‍य में रामाधीन भाई की हुई थी. दो चिरकुट किस्‍म के ठेकों की ओवरसियरी मिली थी मगर भाई साहब व्‍यस्‍त इतना रहते थे जितना जय जवान, जय किसान के पीक पर भी लालबहादुर न रहे होंगे. ठेकों के पीछे रामाधीन भाई ने रामपुर मेले की लडकियों को वार्षिक स्‍तर पर छेडना छोड दिया था. दीपक टाकीज़ की दीवार पर संध्‍या नियम से बैठकर आते-जाते शरीफ लौंडों को अपने गालियों से पुरस्‍कृत करने का रियाज़ बंद कर दिये थे. फुरसत ही नहीं रहती थी. पत्‍नी तक जो छै वर्षों के विवाह में तीन बच्चियां जन कर न केवल बच्चियों से बल्कि उनके जनक तक से विरक्‍त हो गई थी कि उन्‍हें एक बेटा न दे सके, वापस लडिया-लडिया कर उस शिकायती फेज़ में लौट गई थी जहां औरतें खास अदा से देह नचाकर बिदकती हैं कि- आग लगे ऐसे काम में कि ‘इनका’ चेहरा देखना दुलम हो गया है! पत्‍नी ही नहीं रामाधीन भैया की इस व्‍यस्‍तता से मोहल्‍ले का पनवाडी तक दुखी था. रामाधीन भाई सुखी थे. सात साल की बेकारी के बाद सुहाना सफ़र ये मौसम हंसीं शुरु हुआ था. प्‍यार से मुनिया भाभी पर लात फेंक देते थे. वह मुसकराकर इनका गोड हाथ में लेकर उसे दबाने लगती थी. मेरी बेकारी को सात साल से ज्‍यादा हो गए लेकिन ब्‍लॉग पाकर चहक मैं रामाधीन भाई वाली शैली में ही रहा हूं. क्‍यों, मेरे लिए रहस्‍य है. मगर शायद नहीं भी है. शायद इसलिए कि लगता है समय कीमती है, और अभी-अभी आया है. सभी सृजनशिल्पियों को पछाड मारुंगा. चालीस सालों से जो बांध सृजनात्‍मकता रोके हुए था वह सब ब्‍लॉगर की डेटा रिसीविंग मशीन पर टीप कर उसको बेदम कर दूंगा. पर एक दिक्‍कत हुई है. दिक्‍कत यह हुई है कि मशीन तो जितना बेदम हुई होगी सो हुई होगी लगता है मेरी सृजनात्‍मकता सिलेमा के पाठकों के भी नाक में दम कर रही है. कल सिलेमा का काउंटर देखे तो कलेजा उसी तरह मुंह को आ गया जैसे लास्‍ट टाईम हाई स्‍कूल का नतीजा देखते वक्‍त आया था, और उससे पहले तब आया था जब क्‍लास में योगिता को एम करके लेटर का पुडिया फेंके थे और वह निशाने की चूक से गणित के पाणिग्राही सर के टेबल पर चला गया था. योगिता के चले जाने का उतना दुख नहीं है जितना सिलेमा के काउंटर पर आपके न आने का दुख हो रहा है. हमारे मित्र हैं संगम. सिनेमा का जिक्र चले तो वैसे चहकने लगते हैं जैसे प्रैसवाले अभिषेक ऐश्‍वर्या के बियाह पर मचलने लगते हैं. कल हमने दिल्‍ली नंबर लगाके पूछा आखिरी दफे सिलेमा कब झांकने आये थे. संगम चोट्टों की तरह हंसने लगे. अपने जिगरी यार तलक जब इस तरह दगा देने लगें तो आप तो अनाम-गुमनाम पाठक ठहरे, आपको बॉक्‍स ऑफिस के लिए कहां से जिम्‍मेदार ठहराऊंगा! सिनेमा-टिनेमा का वैसे भी दुनिया में अब कोई पुछवैया नहीं बचा है. हमारे और रामाधीन भैया जैसे कुछ पगलेट अलबत्‍ता बचे हैं. प्‍लेयर पर दी सिका और सत्‍यजीत बाबू की फिल्‍म चलाये बगैर हमारी आंख नहीं लगती. आपकी लगी हुई है. मैं जगा रहा हूं. सुनते हैं? नया शो चालू हुआ है, आईये, टिकट खरीदिये, कि बुलायें रामाधीन भैया को!

(ऊपर माजिद मज़ीदी के 'बरान' की कमउम्र नायिका)

3 comments:

Anonymous said...

ऐसन धमकी काहे देत हो भईया, हम टिकट लेकर सलीमा देखते हैं।
वू का है कि स्कूल जमाने से आदत है ना, किलास छोड़ कर सलीमा देखने की। तो हम टिकट खरीदते बखत कीसी की नजर नही पडने देते है, इसलिये आपको पता नही चला !
भईया इ बात किसी और को मत बताना....

Pratyaksha said...

आप लिखते बढिया हैं । पढकर सुबह सुबह एक मुस्कुराहट तो आ गई ।

v9y said...

एक टिप बताएँ?

अपनी बालकनी (टिप्पणी वाले कोने) में बतियाएँ. कम से कम जब दूसरा कुछ बोले तो नाड़ तो हिला ही दें. ब्लॉग पर्सनल चीज़ है. हम आपकी सुनें तो आप भी हमारी सुनिये. हम बोलें तो आप हुँकारा तो भरिये.

और फिर ये भी है कि सिनेमा पर *बात करने* के शौकीन भी "इधर" कम ही दिखते हैं. पर लिखना न छोड़ें. राय और डि सिका को कौन से भरे थियेटर मिलते हैं.