8/15/2021

वेटिंग फॉर जी..

कुछ लिखे जाने और न लिखे जाने का भेदिल संसार महिनों, या कहें तो सालों-साल का हो सकता है। जैसे ख़यालों में एक फ़ि‍ल्‍म का घरघराता रील घूमता रहता है, अंदाज़ होता है प्रोजेक्‍शन अब और तब शुरु हुुआ, और फ़ि‍ल्‍म जो है, वह खुलती नहीं। बरसते पानी की आवाज़ आती है। कोई औरत अपना काम समेटकर रसोई के बाहर झाड़ू घुमाती, आंगन के नल के नीचे पैर धोती दिखती है। एक आदमी घर लौटता है, एक घिसी पुरानी कुर्सी खींचकर सिर नवाये, गर्दन पर हाथ फेरता आवाज़ देता है, ''घर पे हो?" 

बच्‍चे बंद स्‍कूलों के मुहानों का ख़याली चक्‍कर लगाकर उन दोस्‍तों से कुछ पूछना चाह रहे हैं, जिनसे इन दिनों उनकी बात नहीं हो रही, लड़कियां हैं कहते-कहते ठहर गई हैं। सबकुछ वैसा ही कुछ अटका-अटका है जैसे न पहुंच पा रही फ़ि‍ल्‍म की कहानी के फीतों का खुलना है, जो नहीं ही खुलती। 

कब शुरु होगी। फ़ि‍ल्‍म। कभी होगी? 

होगी। फिर सुबह होगी हुई है तो फ़ि‍ल्‍म का होना भी होगा। इंतज़ार कीजिए। मैं ज़माने से करता रहा हूं। 'वेटिंग फॉर गोदो' का हिन्‍दी अनुवाद है आपके पास? किसी दोस्‍त के पास होगा। एक मेरी दोस्‍त थी उसके पास हुआ करता था, मगर इन दिनों उससे मेरी बात नहीं हो रही। मज़ा यह कि हम दोनों ही बहुत समयों तक गोदो का इंतज़ार करते रहे।