5/14/2012

अंतरंग अजनबी..

एडोलेसेंस ठुमकता नहीं गुज़रता, छाती में किसी जंगखाये खंजर की तरह गड़ा, अटका रहता है. जॉन दीगन की ऑस्‍ट्रेलियन फ़ि‍ल्‍म ‘द ईयर माई वॉयस ब्रोक’ (’87) इसी उलझे किशोरावस्‍था के भूगोल में घूमती है. धीमे-धीमे गिरह खोलने का कभी सुघड़ भावलोक बुनती है. हाई स्‍कूल निपटाकर अब कॉलेज की ओर निकलने से पहले की एक जश्‍नी सांझ में चंद किशोरों का मन व उनके आसपास का संसार लम्‍बे ट्रैकिंग शॉट्स में संवारती और खंगालती चलती, जॉर्ज लुकाच की सन् तिहत्‍तर की फ़ि‍ल्‍म ‘अमेरिकन ग्रैफिटी’ का पेस तो और धीमा है (गो सिनेमेटि‍कली ज़्यादा सुरीला है) क्‍योंकि यहां कहानी सिर्फ़ एक सांझ, गुज़रती रात की हो रही है, मगर चूंकि यह ऑस्‍ट्रेलिया नहीं अमरीका है, और जॉर्ज लुकाच का है, यहां जंगखाये खंजर के घाव नहीं हैं, ताज़ा-ताज़ा जीवन में उतरे कारों और प्रेम और ‘जाने कौन-सा कैसा तो भविष्‍य’ की अनिश्चिंताओं, तीव्र रोमान की, सुरीली कॉरियोग्राफ़ी है.

कल रात, तीसरी मर्तबा, फिर से ‘मैन ऑन द ट्रेन’ देखकर खुश हो रहा था, कि निर्देशक की अपने माध्‍यम के साथ क्‍या मोहब्‍बत है, इकॉनमी में एक्‍टर के चेहरे (ज़्यां रोशफॉर) से क्‍या-क्‍या भाव निकलवाते रहने की क्‍या माहिरी है. छत्‍तीस फ़ि‍ल्‍मों के लम्‍बे करियर में फ्रांसीसी पैट्रिस लेकों ने कुछ उतनी नहीं बनाई हैं, मगर काफ़ी सारी काफ़ी अच्‍छी फ़ि‍ल्‍में बनाई हैं, थ्रिलर्स के उस्‍ताद लिखवैया जॉर्ज सिमेनॉन की रचना पर आधारित ‘मोश्‍यू हायर’, मन के उलझावों के तारों का संगीत समझती ‘द हेयरड्रेसर्स हस्‍बैंड’, ‘गर्ल ऑन द ब्रिज’, ‘इंटिमेट स्‍ट्रैंजर्स’; या समय और समाज में सत्‍ता का महीन विमर्श बुनती, निहायत सुलझी फ़ि‍ल्‍में ‘सां पियेर की बिधवा’‘रिडिक्‍यूल’.. कहीं से हाथ लहे तो, आखिर की दो तो ज़रुर ही देखें.