सच पूछिये तो जापानी सुनामी के विध्वंसों के नीचे कराहती दुनिया में प्रेम पर सोचने का यह समय नहीं है. जापान सोचने से फ़ुरसत बने तो लोग थोड़ा लीबिया ही सोच लें, प्रेम पर सोचने को अभी आगे बहुत समय मिलेगा, रहेगा. मैं यूं भी प्रेम-ट्रेम को लेकर बहुत उत्साही रहनेवाला जीव नहीं. मगर देखिए, स्थितियां होती हैं, आदत का मारा आदमी होता है, बात जापान से शुरु करके लिये प्रेम पर ही आता है. सोचकर शर्म हो रही है. मगर प्रेमगिरा पंक शर्म ही करता रहा तो फिर प्रेम किस खुराक के बूते करेगा? सॉरी.
तो मैं कह रहा था? हां. भीड़ में अचक्के भेंटाये दिलकश, अंतरंग साथ की तरह मिल जाती हैं फ़िल्में. कुछ. कभी. (बीवेयर, हिंदी सिनेमा में नहीं मिलतीं. ऑलमोस्ट. किसी अच्छे की उम्मीद के शगुन की शक्ल में भी नहीं. इतने क्या फर्क पड़ता है जितने भी खून माफ, या दोगली नकचढ़ी जिंदगी के नाम पर बचकानी, हास्यास्पद अदाबाजियां मिलती हैं, जिनकी संगत में अच्छा-खासा मुस्कराता आदमी दर्द से सिर पकड़ ले, शर्म से झुका ले, या भागकर डॉक्दर से मशविरा करने पहुंच जाये कि बुरी फिल्मों से बच लेने की क्या दवाइयां हैं..) कि प्रेम विरोधी मन भी असमंजस में ज़रा देर को भावुक हो जाये. सामनेवाले को रात के खाने के लिए रोक लेने जितना आत्मीय हो जाये, मनुष्यत्व का स्केल निकालकर अपनी छोटाई नापकर शर्मिंदा होने लगे. कि शर्मिंदगी में भी देर तक मन खिला रहे. ताज्जुब करता कि एक सीधी सी कहानी ही तो थी, कि इस बुनावट में ऐसा क्या खास था जिसमें ढुलककर आप यूं उलझे, उलझते गए?
जैसे अभी कुछ दिनों पहले फेसबुक के अपने पन्ने पर मैंने जोडी फोस्टर की फ़िल्म, होम फॉर द हॉलिडेज़ का लिंक चिपकाया था, कि अरे, क्या रपटीली, दौड़ती फ़िल्म है. अपने अरमानों में बहुत महत्वाकांक्षी न भी हो तब भी हॉलीवुड का मस्ती-मस्ती में लजीज़, जलेबीदार तरीकों से कथा कहने का यह जानर कितना एंटरटेनिंग व प्रभावी होता है (जैसे बेन स्टिलर एक्टेड पिछले दिनों एक और फ़िल्म देखी थी, ‘ग्रीनबर्ग’). लेकिन सॉरी, मैं अपनी फ्रेंच प्रेयसी की बाबत कह रहा था.
काफी महीने हुए छोटे शहर की एक निर्दोष सी अनमैच्ड, डूम्ड फ्रेंच प्रेमकथा पर नज़र गई थी, फ़िल्म के नाम का स्थूल अंग्रेजी रुपान्तर था ‘गवैया’. जिस कमउम्र लड़की के पीछे बुढ़ा रहे, और धीरे-धीरे प्रेम के बाज़ार में अब बेमतलब हो चले ज़ेरार देपारद्यू को बहुत सारा दर्द मिलता है वह लड़की थी सेसिल द फ्रांस. बूढ़े ज़ेरार की तरह तभी मुझे सबक ले लेना चाहिए था, मैंने लिया भी था ही. कि सेसिल तुम्हारे और मेरे रास्ते बहुत अलग-अलग हैं. लेकिन देखिए, प्रेम में कैसे सरल, सीधी समझ उलटकर फिर सिर के बल भी खड़ा होती रहती है. ठने, ठाने तरीके से चाहता था सेसिल से दूर रहूं मगर लड़की है कि फिर दिखी. इस बार हॉलीवुड के पके बूढ़े की संगत में थी- क्लिंट ईस्टवुड की ‘हियरआफ्टर’ में थी, और अभी उस सुनामी का असर पूरी तरह चुका भी नहीं था कि मैं जाने कहां से एक पुरनके, 2006 के ‘ऑकेस्ट्रा सीट्स’ की महफ़िल में घुसा चला आया. इससे पहले भी दानियेल थॉम्पसन की दो फ़िल्में देखी थीं मगर नहीं जानता था लोगों की ही तरह संगीत का वह इतना उम्दा ऑर्केस्ट्रेशन अरेंज करवाना जानती हैं, कोरियोग्राफ़ी सजाना जानती हैं. और सब कशीदाकारी के बीचोंबीच अपनी सेसिल तो थी ही, बदकार अपने ऑर्डिनरीनेस में मुस्कराये जाती, मुझसे अड़ियल को और असहज बनाती. मुझ पर नज़र जाते ही लड़की छूटकर बोली, ‘ओ मेर्द, हाऊ अग्ली यू आर?’ हड़बड़ी में नाक का पसीना पोंछते मैंने सहज होकर कहा, ‘चलो, कम से कम एक विषय पर तो हमारी राय मिलती ही है.’
सुनकर सेसिल हंसने लगी. उस हंसी में एक बार फिर लुटा मुझसा प्रेम-विरोधी भी चट जान गया कि हमारे बीच अभी कितनी-कितनी फिल्मों का संबंध बना रहनेवाला है.