5/03/2010
कुछ कुछ होता है.. ज़्यादा गरमी ही होती है..
पता नहीं ऐसी गरमी में लोग पहाड़ कैसे चले जा रहे हैं. जबकि मैं इन पहाड़ सदृश दिनों को अधिक से अधिक फ़िल्मों के पुल से पारने की कोशिश कर रहा हूं. मगर परा कहां रहे है? 'गोन विद द विंड' में तो पहाड़ का एक दृश्य भी नहीं है, अलबत्ता आग के बहुत सारे हैं, ताज्जुब की बात नहीं क्यों मैं पसीना नहाया इस तरह सिहर रहा हूं.. ज़्यां कोक्तू के व्यक्तित्व की महीनी उनके वेबसाइट और वीकी पर भी आपके नज़र आयेगी, लेकिन फ़िल्म जो मेरे नज़रों से गुज़री, 'द ब्यूटी एंड द बीस्ट', वह आंखों को चैन पहुंचानेवाली कहां हो सकती थी? हो सकता है मेरे सारे चयन ही ग़लत रहे हों, सुख की कहानी कहनेवाली तो सिनेमा के सुख में सराबोर मैक्स ओफुल्स की फ़िल्में, 'द प्लेज़र' और 'लोला मोंतेस' भी नहीं थीं. पैसों के पीछे भागनेवाली नई जीवनशैली के नरक पर करुण हो रही चीन की 'लक्ज़री कार' और क्रोशियन लेस्बियन तक़लीफ़ कथा, 'फाईन डेड गर्ल्स' तो नहीं ही हो सकती थीं.
सचमुच, इस गरमी से निदान नहीं है. मतलब जब तक जीवन का सिनेमा है, कैसे और क्यूंकर हो सकेगा?
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