हिंदी फ़िल्मों पर लिखना, लिखते रहना सचमुच कलेजे का काम है. ऐसा नहीं है कि हिंदी साहित्य पर लिखना कलेजे का काम नहीं है, लेकिन साहित्य के साथ सहूलियत है कि आप किताब बंद कर देते हैं चिरकुटई ओझल हो जाती है, जबकि हिंदी फ़िल्मों की रंगीनियां आपका पीछा नहीं छोड़तीं, बस के पिछाड़े से लेकर बाथरुम के आड़े तक ‘मसक अली, मसक अली!’ की मटक का सुरबहार तना रहता है. बार-बार याद कराता कि अभीतक हमको नहीं देखे? जन्म फिर ऐसे ही सकारथ कर रहे हो? आप अस्तित्ववादी चिंताओं में घबराकर ‘दिल्ली 6’ की ज़द में घुस ही गये तो फिर दूसरी वैचारिक घबराहटें शुरू हो जाती हैं. पहली तो यही कि हिंदी फ़िल्मों का निर्देशन करनेवाले ये प्रतिभा-पलीता किस देश के कैसे प्राणी हैं? और जैसे भी प्राणी हैं भक्ति व श्रद्धा में भले इनका रंग निखरता हो, फ़िल्म बनाने का करकट करतब किस भटके डॉक्टर ने इन्हें प्रीसक्राइब किया है? माने अभी ज्यादा वक़्त नहीं हुआ आपने ‘रंग दे बसंती’ के तरबूज के फांक काटे थे, और इतनी कर्कटता से अब तरबूज की तरकारी (या ‘दिल्ली 6’) परस रहे हैं? कहां गड़बड़ी कहां है, भाईजान? काम की कंसिंस्टेंसी कोई चीज़ होती है? कि स्टील की फैक्टरी में आप प्लास्टिक की चप्पल मैनुफैक्चर कर आते हैं? और बाहर आकर दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए मुस्कराते भी रहते हैं कि इट्स अ ट्रिब्यूट टू माई सिटी! इज़ दिज़ सम ट्रिब्यूट, मिस्टर मेहरा, ऑर हाथी की लीद? इट्स रियली नॉट फ़नी!
माने सचमुच यह दार्शनिक प्रश्न होगा कि आप किस एंगल से ‘दिल्ली 6’ को एक फ़िल्म मानें. माने इसलिए मानें कि फ़िल्म में बहुत सारे एक्टर हैं और वो बहुत सारी बकबक करते हैं और किसी घटिया वाईड एंगल वीडियो की तर्ज़ पर रामलीला जैसा कुछ जाने कितने जन्मों तक चलता रहता है? मैंने काफी समझा-बुझाकर खुद को तैयार किया था कि कम से कम मिस्टर जूनियर बच्चन को अमरीका से लौटा हुआ मान लूं, मगर इतनी रियायत भी मन पचा ले लगता है अभिषेक बाबा इतने पर के लिए भी तैयार नहीं थे. अमरीका से नहीं प्रतापगढ़ के किसी टैक्सी यूनियन के सेक्रेटरी के छुटके भइय्या रौशन ख़ानदान हैं पूरे वक्त इसीकी प्रतीति होती रही! कास्टिंग के बारे में सचमुच क्या कहा जाये, फ़िल्म की इकलौती अच्छी बात ‘मसक अली’ वाले गाने को देखते समय लगता है कबूतर की कास्टिंग सही हुई है. दिल्ली और चांदनी चौक लगता है मुमताज़ के 'दुश्मन' के ‘देखो, देखो, देखो, बाइस्कोप देखो’ से इंस्पायर होकर डायरेक्टर साहब कैप्चर कर रहे थे.
अबे, सचमुच कोई हिंदी फ़िल्म क्यों देखे? मगर यह फिर वही बात हुई कि कोई हिंदी में किताबें क्यों पढ़े. आदमी अकेलेपन से घबराकर जैसे शादी कर लेता है, मैं हिंदी की किताब एक ओर हटाकर हिंदी फ़िल्म देखने चला जाता हूं! इसी तरह के मानसिक भटकाव में ‘गुलाल’ देखने चला गया होऊंगा. फ़िल्म के दस मिनट नहीं बीते होंगे, ख़ून खौलानेवाली बहुत सारी बड़ी-बड़ी बातें होने लगीं, मैं भी खौलता हुआ वयस्क दर्शक बनने की भूमिका बनाने लगा. मगर फिर बहुत जल्दी थियेट्रिकल गानों की थियेट्रिकल अदाओं से ऊब इस समझ पर भी आकर आराम करने लगा कि फलां जगह घुसा देंगे, डंडा कर देंगे की महीन बुनावट वाली ये दुनिया हमें पारंपरिक हिंदी सिनेमा से अलग दुनिया देखने के क्या नये मुहावरे दे रही है, सचमुच दे रही है? ‘देव डी’ पर बड़े सारे भाई और बच्च लोग गिर-गिरके बिछते और बिछ-बिछके गिरते रहे मगर वह टुकड़ा-टुकड़ा दिल की कौन नयी दुनिया खोल रही थी? या ड्रग्स, सैक्स, वॉयलेंस का एक ज़रा सा हटके वही पुराना कॉकटेल ठेल रही थी? कुछ लोग मेरे कहे से संभवत: नाराज़ हो जायें, कि मैं फ़ेयर नहीं कह रहा एटसेट्रा मगर माफ़ कीजिये, दोस्तो, मेरे पास इस सिनेमा के लिए ‘सिनेमा ऑफ़ डिसपेयर’ से अलग और कोई नाम नहीं सूझता. एंड इन माई अर्नेस्ट सिंसीयरिटी आई जेनुइनली क्वेश्चन ऑल दोज़ फ़िल्म एंथुसियास्ट्स हू आर गोइंग गागा ओवर गुलाल..
गुलाल से निकलकर ‘बारह आना’ लोक में गया, और सच कहूं फ्लैट, इकहरा डायरेक्शन, खराब ऐक्टरों व निहायत सिरखाऊ बैकग्राउंड स्कोर के बावज़ूद फ़िल्म देखने का मलाल नहीं हुआ. आसान रास्तों की सहूलियत से मुक्त, नेकनीयती और मुश्किल स्क्रिप्ट धीरे-धीरे अपने को संभाले ठीक-ठाक निकल जाती है. गुलाल की बजाय बारह आना वाली दुनिया में होना ज़्यादा अर्थपूर्ण लगता है.
3 comments:
सही फटकारे हैं।
Its really relieving to see your comments on Dev D and Gulaal.
Hi I am Ashish from New Delhi Film Society. Have ben looking for an opportunity to have a word with you.
Can we interact through mails.
I am available at filmashish@gmail.com
Regards,
Ashish
- कास्टिंग के बारे में सचमुच क्या कहा जाये, फ़िल्म की इकलौती अच्छी बात ‘मसक अली’ वाले गाने को देखते समय लगता है कबूतर की कास्टिंग सही हुई है.
:-) :-) :-)
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