बॉलीवुड की ऐसी दुनिया में जो विश्व सिनेमा के बरक्स अभी तक अपना ककहरा भी ढंग से दुरुस्त नहीं कर पायी है,
अनुराग में ढेरों खूबियां हैं. अपनी और अपनी से ज़रा ऊपर की पीढ़ी के बाकी सेनानायकों के उन नक़्शेकदमों- जिनमें लोग किसी अच्छी-खराब कैसी भी शुरुआत के बाद सिर्फ़ और सिर्फ़ बड़ी फ़िल्में, और बड़े स्टारों का रूख करते हैं- से निहायत अलग अनुराग का अभी तक का ग्राफ़ परिचित बंबइया मुहावरों से बाहर के एक्टरों को इकट्ठा करके अपने ढंग की फ़िल्म बनाना रहा है. ‘
नो स्मोकिंग’ जैसी फ़िल्म में उसका सुर बिगड़ भले गया हो, अनुराग की बुनावट की कंसिस्टेंसी अपनी उन्हीं पहचानी बारोक रास्तों पर चलती दिखती है. बॉलीवुड की बंधी-बंधायी इस अटरम-खटरम राग में अनुराग ने एक और दिलचस्प और नये एलीमेंट का जो इज़ाफा किया है वह बंधे-बंधाये लोकेशनों से बाहर फ़िल्म के एक्चुअल शूट को बाहरी वास्तविक संसार की खुली बीहड़ता में ले जाकर एकदम से बेलौस तरीके से फैला देना है, और इस लिहाज से अनुराग
मणि रत्नम की ‘सजायी’ और
डैनी बॉयल की ‘
स्लमडॉग मिलिनेयर’ की ‘बुनाई’ सबसे चार कदम आगे चलते हैं. आज के बॉलीवुडीय वास्तविकता के मद्देनज़र अनुराग की इन अदाओं में ऐसा ‘इलान’ है कि तबीयत होती है जाकर बच्चे का कंधा ठोंक आयें. वाकई यह बड़ा अचीवमेंट है.
फिर? अनुराग में यह प्रतिभा भी है कि छोटे-छोटे सिनेमाई क्षणों में कैज़ुअल तरीके से खूब सारे डिटेल्स पिरो लें, और ऐसा नहीं कि फिर वहां अपनी मोहिनी पर इतराते अटके रहें, बिंदास तरीके से आगे निकल जायें, तो इतने सारे तो हाई पीक्स हैं अनुराग की सिनेमायी संगत में, फिर भी कल ‘
देव डी’ देखी और दिल एकदम टूट सा गया!
क्यों टूटा में इंडल्ज नहीं करूंगा, यह अनुराग नहीं समाज के फलक के बड़े सवाल हैं इनके बारे में चंद बातें करूंगा, अकल में और चीज़ें घुसीं तो उनकी चर्चा आगे फिर होती रहेगी..
तक़लीफ़ के एकांतिक क्षणों में व्यक्ति की वल्नरेबिलिटी के कुछ बड़े प्यारे मोमेंट्स हैं
‘देव डी’ में- कोमल, एक अकेले पत्ते की तरह लरज़ता, कांपता व्यक्ति. लेकिन प्रेम और सांसारिक अनुभव की इतनी भर गरिमा की अंडरस्टैंडिंग के बाद
देव डी आगे कहीं नहीं जाती, सीधे यहीं बैठ जाती है. मैंने गिनती गिनना (या कायदे से उनको सुनना, समझना भी) भी बंद कर दिया था, लेकिन समीक्षक बताते हैं फ़िल्म में अट्ठारह गानों को बखूबी कहानी के तार में पिरोया गया है, अभय देओल ही नहीं, कल्की, माही सबके बड़े उम्दा परफ़ारमेंसेस हैं, एक हिंस्त्र किस्म की एनर्जी फ़िल्म की शुरुआत से लेकर आखिर तक बनी रहती है, लेकिन फ़िल्म में आप किसी सामूहिक मानवीयता का कोई गाना सुनने की उम्मीद पाले बैठे हों, तो जाने क्यों मन एकदम खाली-खाली सा महसूस करने लगता है, फ़िल्म तेजी से ऊब पैदा करना शुरू करती है,
मानो कोई बड़ा विहंगम बारॉक कैनवस अचानक आंखों के आगे खुल गया हो, लेकिन उसकी कोई आत्मा न हो!मगर उदासियों और नयी सम्भावनाओं का ककहरा बांचने में लगे बच्चों को फ़िल्म जंच रही है, इतनी जल्दी एक छोटे-से बड़े संसार में
‘इमोशनल अत्याचार’ एक बड़े अरबन मुहावरे की शक्ल में हिट हो गया है तो हम भी सोच में पड़े हैं, कि गुरु, चक्कर क्या है. पार्टनर, गिरे क्यों पड़ रहे हैं, लोग? अभी चंद महीनों पहले हमने ‘
ओये लकी..’ के दिबाकर को
शाबासीमाल पहनाया था, मज़े की बात वहां भी अभय थे, पतित नायक का नायकत्व था, लेकिन ओह, कैसी तो उदात्तता थी, एक मानवीय डिग्निटी थी दिबाकर की फ़िल्म में, चरित्रों की तक़लीफ़ में आपका मन फड़फड़ाता रहता है, देव डी में कभी आपकी आत्मा में ऐसे तीर नहीं धंसते, फिर भी फ़िल्म ने एक बड़े शहरी समुदाय का स्नेह फंसा रखा है (और वह सैक्स की वज़ह से है ऐसा मैं नहीं मानता),
क्यों?..
शायद यह ऐसे ही नहीं हो गया है कि
‘देव डी’, और बड़े अर्थों में
‘स्लमडॉग मिलिनेयर’ भी, एक बड़े शहरी समुदाय के मन को भा रही है.
‘स्लमडॉग..’ तो भारतीय यथार्थ का एक क्रूड ऐसा पिक्चर पोस्टकार्ड है जो खास फिरंगी कंस्पंशन के लिए तैयार किया गया है, फिर यह यहां की इंडियन क्राउड को क्यों रास आ रहा है? शायद इसीलिए रास आ रहा है कि हमारे देखते-देखते यहां भी बड़े शहरों में एक ऐसी आबादी बड़ी हो गयी है जो अपने आसपास के यथार्थ को उन्हीं चश्मों से देखती है जिन चश्मों से कोई फिरंगी आंख हमारे समाज को देखेगी? थोड़ा पहले तक हक़ीकत यह थी ‘लगान’ के हाइजेनिक गांव इस शहरी तबके के मन में गांव की वास्तविकता का परिचायक थे, उसके बाद ‘रंग दे बसंती’ के म्यूजिकल फ्लाईट में इसने देशभक्ति का थोथा सबक पा लिया, अब यह अपने समाज को अपनी आंखों पहचानने, पहचान पाने की बनिस्बत डैनी बॉयल के स्केची, एक्सप्लॉयटेटिव ‘स्लमडॉग..’ की मार्फ़त पहचान लेने की सहूलियत में सुखी होती है. फ़िल्म और समाज दोनों ही के लिए यह शुभ संकेत नहीं है, बाह्य सामाजिक यथार्थ के वास्तविक रेशों से कटे, चरम सेल्फ़ इंडलजेंस के ये नये मेनीफ़ेस्टों हैं. ‘स्लमडॉग..’ के साथ यहा ‘देव डी’ की याद महज इस संयोग के लिए नहीं कर रहा हूं कि फिल्म में डैनी बॉयल के आभार का एक क्रेडिट टाइटल है, नहीं, देव डी भी अपनी समूची एनर्जी में चीख-चीखकर उसी सेल्फ़ इंडलजेंस का बड़ा घोषणापत्र बनाती रहती है जिसमें भयानक सोशल डिसकनेक्ट है, सिर्फ़ मैं है मैं है, सामाजिक रेफ़रेंसेस महज बैकग्राउंड डिटेल्स हैं (स्क्रिप्ट व फिल्म में यह गूंथ लेना अनायास ही नहीं रहा होगा कि देव नशे की हालत में अपनी कार से सात लोगों को कुचलता उनकी मौत का कारण बनता है, दर्शकों के लिए यह कहीं कंसर्न व टेंशन का विषय बनने की मांग नहीं करता!), समाज नहीं है. ऐसा सिनेमा अत्याचारी गानों का जश्नगाह भले बन जाये, भारतीय सिनेमा को कहीं ले जानेवाला सुरीला गान तो क्या बनेगा.
एन एक्स्ट्रीमली सैड फेनोमेनन..