10/19/2009

द स्‍टेशन एजेंट

इस संशयभरे समय में अब कभी कैसा सुखद संयोग होता है कि फ़ि‍ल्म देखते हुए कोई चमकदार चालाकी देख रहे हों जैसी अनुभूति नहीं होती. सामान्य लोगों के लगभग घटनाविहीन जीवन-प्रसंगों के चित्र गरिमा के सुलगते बिम्बि बन जाते हैं, और मन उसमें धंसा देरतक चिटकता रहे, अब सचमुच कहां, कितना होता है? इस उत्तरर-आधुनिकता के उत्तरार्द्ध में जब चेख़ोवियन कहानी-कहन स्वयं हाशिये की चीज़ हो गए हों, कथा-तत्वों से खेल सकने की अंतर्निहित गुणशीलता कहनेवाले की मेधा का परिचायक बनती-घोषित हो, गुणीजनों की वाहवाही बटोरती हो, जो दिख रहा है वही, उतना ही कह रहा हूं की सीधी राह का पथिक गज़ब का सनकी, संभवत: दुस्साहसी कहलाये, कलाकार-फ़ि‍ल्मकार क्यों कहलायेगा भला? फिर भी सुखद आश्चर्य का विषय है कि रहते-रहते कलाबाज़ार के चालाक अंबार में ऐसी फ़ि‍ल्में प्रकट होती रहती हैं, और हॉलीवुडीय ढर्रे पर उन्हें ढेर, ढेर, ढेर सारा धन न भी मिले, दुलार बहुत सारा मिलता रहा है, आंखें खोज-खोजकर इन फ़ि‍ल्मों को देख लेती रही हैं. ऐसी ही एक उदास, और धीरे-धीरे मन और दिमाग़ पर चढ़ती शाइनी गाबेल की एक फ़ि‍ल्म 2004 में आई थी, ‘अ लव सॉंग फॉर बॉबी लोंग’, फ़ि‍ल्म में जॉन ट्रवोल्टा और स्कारलेट जॉहानसन थे से विशेष फर्क नहीं पड़ता, और न ही इसे कोई जिक्र करने लायक बड़े अवार्ड से नवाजा गया, मगर जिन्होंने फ़ि‍ल्म देखी है उनसे फ़ि‍ल्म के बाबत पूछकर फिर उनके चेहरे के भाव पढ़ि‍ये, उस भाव में वे सारे अवार्ड समाहित होंगे जो गाबेल को सार्वजनिक तौर पर प्राप्त नहीं हुए!

कहानी और चरित्रों में अटक जाना, फ़ि‍ल्म के खत्म होने के बहुत-बहुत दिनों बाद तक उसे अपनी त्वचा के भीतर लिये जीते रहना पहले एक ताक़त हुआ करती थी जो इस हल्ले-गुल्ले और रोज़ नये माल की तरफ़ आंख करो के आततायी वक़्त ने फ़ि‍ल्मों से छीन लिया है (आमतौर पर कलाजगत और साहित्य़ भी उससे अछूते कहां रहे हैं?), फिर भी रहते-रहते कोई दुस्साहसी होता है जो ‘लिटिल मिस सनशाइन’ की कसरत कर डालता है, थॉमस मैकार्थी बहुत सालों से एक्टिंग करते रहे हैं, निर्देशन अभी तक दो का ही किया है, 2007 में एक फ़ि‍ल्मं आई थी, ‘द विज़ि‍टर’, मालूम नहीं ब्लॉग पर कभी जिक्र किया या नहीं, वह भी काफी निर्दोष किस्म का काम था, और अभी कुछ घंटों पहले देखी, ‘द स्टेशन एजेंट’ वह 2003 की और बतौर निर्देशक पहली फ़ि‍ल्म थी, और हाशिये पर अपने अकेलेपन में पड़े लोगों की ऐसी सरल, चमकभरी फ़ि‍ल्म है कि देखते हुए कभी-कभी सचमुच वहम होता है कि आधुनिकता के उत्तर, उत्तरार्द्ध, छद्म सब अभी भी बहुत दूर हैं.

लहे तो आप भी ज़रूर देखिए. महज़ संयोग ही कहेंगे कि ब्‍लॉग पर इससे पहलेवाली पोस्‍ट के 'अप' के लिखनेवालों में एक नाम थॉमस का भी था!

2 comments:

डॉ .अनुराग said...

यकीनन देखनी पड़ेगी...अब

joproductions@gmail.com said...

Pramod ji,
meharbaani karke yah film bhejein.
sanjay