3/31/2015

दो पुरानी और एक नई शैतानी, के सुख

एक उम्र के बाद निर्मम होकर हिन्‍दी फिल्‍में देखनी बंद कर देनी चाहिये. मगर फिर, एक उम्र के बाद, निर्मम होकर आदमी गोलगप्‍पे और समोसे खाना नहीं बंद कर पाता तो खुद को बहलाने के लिए मन ही मन गुनगुनाता ‘जाने कहां गये वो दिन’ के रुमानी ख़्याल में फिल्‍म में जो नहीं है वैसे निहितार्थों को भी पढ़ता हुआ फ़ि‍ल्‍म के चैप्‍टर्स पलटने लगता है. और इस पुनर्दर्शन के बीस मिनट भी नहीं बीतते कि उसके लिए चोरी से गोलगप्‍पे खाने और बेहयायी से फ़ि‍ल्‍म देखने में कोई विशेष फर्क नहीं रह जाता. आज बहुत सारे फेसबुक कर रहे बच्‍चे उस वर्ष तक अभी पैदा नहीं हुए थे, तो 1970 की फि‍ल्‍म है. राज कपूर का स्‍वान सॉंग जैसा कुछ था. कहानी-पटकथा अपने हमेशा के ज्‍वलनशील, प्रगतिशील अब्‍बास साहब की होशियारी थी, लेकिन फिल्‍म से शंकर सिंह रघुवंशी और जयकिशन दयाभाई पांचाल की धुनें और शैलेंद्र और हसरत बाबू के चार और पांच गानों को हटा दीजिये तो आज के दर्शक के लिए फि‍ल्‍म में शायद ऐसी कोई गुफ्तगू नहीं बचती जिसके तारों में, कोशिश करके भी, वह कहीं उलझ, अटक सके. बारिश में कपड़े गीले करके दूर तक विरह गाती जाती पद्मिनी को 'मोहे अंग लग जा बालमा' को देखकर आप खुद को बहलाते रहते हैं, उसके सिवा बहुत सोचने को फिर बचता नहीं.. जय हो कपूर साहब और अब्‍बास साहेब का जा रे जमाना.

‘27 डाऊन’ चार वर्ष बाद, 1974 में बनी थी और उसका हिसाब ‘मेरा नाम जोकर’ की मल्‍टी-स्‍टारर वाली बराबरी का नहीं है, फिर भी, चालीस वर्षों के अन्‍तराल पर उसे देखते हुए, किसी महीन गुफ्तगू के अभाव में, मन वहां भी उसी तेजी से उखड़ना शुरू करता है. प्रथम पुरुष में रह-रहकर नायक की सोलोलॉकी चलती रहती है और उसका स्‍तर पिटे अस्तित्‍वादी चिंताओं की तिलकुट बुनकारी व अदाओं से बहुत ऊपर नहीं उठता. एमके रैना ने तीन या चार हिन्‍दी फिल्‍मों में जो अभिनय किया है, उन फिल्‍मों से यही अहसास होता है कि अपने चेहरे के भावों से ज्‍यादा उन्‍हें अपनी फैली दाढ़ी का आत्‍मविश्‍वास रहा है. अलबत्‍ता यहां उस दौर के उपनगरीय बंबई की छटा अपूर्व किशोर बीर की सिनेकारी में जिस धज और निखार के साथ देखने को मिलती है, फिल्‍म का वह पहलू अभी भी डेटेड नहीं हुआ है. उसी तरह बंसी चंद्रगुप्‍त का प्रोडक्‍शन डिज़ाईन. बाकी फिल्‍म में याद रखने लायक कुछ नहीं है, मानकर चलिये ट्रेन आई थी और निकल गई.

जैसे हाल में अभी एक और, सुचिंतित कलाकर्म, ‘बदलापुर’ की शक्‍ल में आई थी. फिल्‍म के आखिरी बीसेक मिनट के कसाव और लिखाई को हटा दें तो बकिया का डेढ़ घंटा आप गंभीरता से विचलित होते सोचने से नहीं ही बच पाते कि फिल्‍म के पीछे ऐसा चिंतन क्‍या है, और बदलापुर क्‍यों आई है, और उसमें दर्शक के तौर पर, हम क्‍यों आये हैं. पके और थके हुए लोग एक-दूसरे पर नीचता की हिंसा की तरकीबें आजमाते रहें का होनहार करम हमें क्‍या नई बात बता सकता है. नहीं ही बताता.

मैं फिर सोच रहा हूं एक उम्र के बाद हिन्‍दी फिल्‍में देखनी बंद कर देनी चाहिये. सवाल यही है कि मालूम नहीं वह उम्र क्‍या है.


1 comment:

Aardy Kumar said...


accha laga padhkar, behtareen likha hua hai, ise tarah likhte rahiye. aur hum padh padh ke isi tarah anand lete rahenge.